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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहेगे । जब येही घर में न रहेंगे तब संसार में गृहस्थाश्रम में रहने से लाभ ही क्या ? इस से तो इन के साथही मुनि वृत्ति ग्रहण करना उत्तम होगा। अतएव उसने भी मुनिवृत्ति ग्रहण करने की ठान ली। नृगु पुरोहित अपनी पतिभक्ता पत्नी के पास जाकर इस प्रकार कहने लगा:-"प्राणप्रिये ! दोनों पुत्रों के भविश्य में जो साधुओं ने कहाथा और हमें जिस बातका भयथा, जिस भय से हम नगरी छेड़कर इस बन में रहे थे, वही बात श्राज साधुओं के आजाने से होगई । ये अपने दोनों पुत्र साधु बनने को जा रहे हैं, कहो तुम्हारी क्या इच्छा है ? " पुरोहितानी कुछ देरतो च. कितसी रह गई पर यह सोच कर कि भविश्य मे उन पुत्रोका ऐसा ही होनाथा । धीरज धर कर स्वामी से बोली:- स्वामी! पुत्र संसार परित्याग करें तो उन्हें करने दो। यह अपार सम्पति जिस के लिये मनुष्य रात दिन परिश्रम करते हैं और अनेक छल कपट से धन इकट्टा करते हैं उस अतुल धन राशिको क्यो खोवे. श्राो पुत्रों का सोच छोड़ अपन दोनों ही संसार के सुख और ऐश्वर्यका भोग भोगे।" पुरोहित बोला:-'' प्रिये ! नहीं नहीं ! सुख भोगते २ अंतिम अवस्था आगई है फिर भी भोगने की उत्कृष्ट इन्छा तुम्हें हो रही है। देखो तो सही जो अभुक्त भोगी है वे तो संयम ले रहे हैं और हम भुक्तभोगी और भी सांसारिक सुखों के भोगने के लिये संसार में बैठे रहे । क्या हमारी बुद्धि इन बालकों से भी हीन है? कभी नहीं, ऐसा न होगा । मे भी इन बालको के साथ संसार परित्याग कर मुनित्रत लूंगा; यदि तेरी इच्छा हो तो तू भी संसार परित्याग कर । " जब " यशा" ने देखा कि स्वामी रहने के नहीं, पुत्र रहने के नहीं जिन से सारे संसारका सुख था तब में ही अकेली सं. For Private And Personal Use Only
SR No.020382
Book TitleIkshukaradhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchandji Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashak Samiti
Publication Year1927
Total Pages77
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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