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(१५१) वार ॥ तोहे अपूरवनी परें, माने सुख संसार ॥२॥ जोगाधि फल धर्मनां, जाणे एह जंत॥तोय मूढ हृदय धणी, पाप कर्मे राचंत ॥३॥ नंदीषेण नीचे कुलें, पण तप संयम सार ॥ नृप वसुदेवज ते थयो, हरिवंश कुल शणगार ॥४॥ राजसुता विद्याधरी, बहोतेर सोय हजार ॥ काहन पिता परण्यो सही, अहो तपनुं फल सार ॥ ५॥ तप संयमथी म म चलो, स्वामी श्यो घरवास ॥ चेतो गुरु पाबा वलो, हुं चेलो तुम दास ॥ ६ ॥ सर्वगाथा ॥ १७ ॥ ॥ ढाल ॥ कदली वननो रे सूडलो॥ ए देशी ॥
॥ नाटक ए में देखा डियुं, विकुरव्यो संघ सार के॥ कुमर तणुं रूप में धखं, ममखु संयमनार के।गौतम स्वामी रेपूबता ॥१॥ ए आंकणी॥धर्मविषे मुनि थापि यो, दीधो प्रतिबोध त्यांहिं के॥पश्चात्ताप गुरु त्यां करे, लाज्यो घणुं मनमांहि के ॥गौ॥२॥ कहे धिक्कारज मुऊ हुवो, हुई जाणतोहि गमार के ॥ सूत्रना तां तणा कारणे, त्रोड्यो रयणनो हार के ॥॥ गौ ॥३॥ नहिं मुफ चेलो रे गुरु सही, ए हु बंधव तात के ॥ जेणें पुर्गति रे पडतां थकां, श्रावी ग्रह्यो मुक हाथ के ॥ गौण ॥४॥ पाडो संयम आदरे, पात
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