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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir श्री तीसरा व्याख्यान. कल्पसूत्र हिन्दी बनुवाद । म्बन्धी ज्ञान, हापरिज्ञान और आठवाँ अंत में निपुण स्वामलक्षण पावनीतभाव से रा ॥४०॥ अंगं स्वप्नं स्वरं चैव, भौम व्यंजनलक्षणे । उत्पातमंतरिक्षं च, निमित्तं स्मृतमष्टधा ॥ १॥ अर्थः-अंग के स्फुरण का परिज्ञान, उत्तम, मध्यम और जघन्य स्वप्नों के अर्थ का ज्ञान, दुर्गादि पशुपक्षियों के स्वर का बोध, भूकंपादि पृथ्वी सम्बन्धी परिज्ञान, शरीर में जो मसे तिलादि व्यंजन होते हैं तत्सम्बन्धी ज्ञान, हाथ पैरों की रेखाओं सम्बन्धी सामुद्रिक लक्षण ज्ञान, सातवां उत्पात एवं उल्कापात-अर्थात् तारादि टूटने का परिज्ञान और आठवाँ अंतरीक्ष-ग्रहों के उदय अस्त से शुभाशुभ घटनाओं का परिज्ञान । इन अष्टांग निमित्त के पारगामी, विविध शास्त्रों में निपुण स्वमलक्षण पाठकों को बुलाने की आज्ञा दी। इस आज्ञा को सुन कर वे कौटुम्बिक पुरुष हर्षित और संतोष को प्राप्त होकर विनीतभाव से राजाज्ञा को सिरोधार्य कर वहाँ से निकल कर क्षत्रियकुण्ड नगर के मध्यम में होकर स्वमलक्षण पाठकों के घर जाते हैं । वहाँ जाकर स्वप्नलक्षणपाठकों से कहते हैं-हे देवानुप्रियो! आप को सिद्धार्थ राजाने बुलवाया है। स्वप्नलक्षणपाठक भी राजपुरुषों के मुख से ऐसा सुन कर अत्यन्त हर्षित और संतोषित हुये । उन्होंने स्नान किया, देवपूजा की, निर्मल वस्त्र पहने, मस्तक पर तिलक, सर्षव, दूब और अक्षतादि मांगलिक वस्तुयें धारण की। दुःस्वप्नादि को निवारण करने के लिए अपने मंगल किये, राजसभा में प्रवेश करने योग्य स्वर्णादि के बहुमूल्यवान् आभूषण धारण किये और क्षत्रियकुण्ड नगर के मध्य में होकर सब के सब राजसभा के द्वार पर एकत्रित हुए। वहाँ पर सबने मिल कर अपने में से किसी एक को अग्रेसर बनाया और सब उसके अनु ॥४०॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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