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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम व्याख्यान. श्री IN कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद । होने का संभव है तथा खाद्यलोभ, लघुता और निन्दा होने का संभव होने के कारण राजपिण्ड का निषेध किया है। बाईस तीर्थंकरों के साधु सदैव सरल और प्राज्ञ होते हैं इस लिए उनको उपरोक्त दोष का अभाव होने से उन्हें राजपिण्ड कल्पता है । यह चौथा राजपिण्ड आचार है। ५. कृतिकर्मकृतिकर्म-वन्दना, वह दो प्रकार की है। अभ्युत्थान और द्वादशावर्त । वन्दना सब तीर्थंकरों के तीर्थ में साधुओं को परस्पर दीक्षा पर्याय से करनी चाहिये । साध्वी यदि चिरकाल की दीक्षित हो तथापि उसके लिए नवीन दीक्षित साधु वन्दनीय है, क्योंकि धर्म में पुरुष की प्रधानता है । यह पाँचवां कृतिकर्म आचार है। ६. व्रतकल्पव्रत-महाव्रत उनमें से बाईस तीर्थकरों के साधुओं को चार होते हैं, क्योंकि वे यह समझते हैं कि अपरिग्रहीत स्त्री के साथ भोग होना असंभव है, इस लिए स्त्री भी परिग्रह ही है, अर्थात् परिग्रह का परित्याग करने से स्त्री का भी परित्याग हो जाता है। पहले और अन्तिम तीर्थंकरों के साधुओं को तो ऐसा ज्ञान नहीं होता।। इसी कारण उनके लिए पाँच महाव्रत हैं। यह छठा व्रत आचार है। ७. ज्येष्ठकल्पज्येष्ठ-बड़ेका कल्प । अर्थात बड़े छोटे का व्यवहार । उस में पहले और अन्तिम तीर्थंकरों के साधुओं For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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