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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारिवर्गः। आषाढे शस्यते कोपं श्रावणे दिव्यमेव च ॥६४॥ भाद्रे कौप्यं पयः शस्तमाश्विने चौंज्यमेवच । कार्तिके मार्गशीर्षे च जलमात्रं प्रशस्यते ॥६५॥ भौमानामम्भसा प्रायो ग्रहणं प्रातरिष्यते। शीतत्वं निर्मलत्वं च यतस्तेषां मता गुणाः ॥६६॥ अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेऽन्नं निरम्बुपानाच्च स एव दोषः तस्मान्नरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि ॥ ६७॥ मूर्छापित्तोष्णदाहेषु विषे रक्ते मदात्यये । श्रमे भ्रमे विदग्धेऽन्ने तमके वमथौ तथा ॥ ६८॥ ऊर्ध्वगे रक्तपित्ते च शीतमम्बु प्रशस्यते । टीका-सूर्यकी किरणोंसें जुष्ट इसप्रकारके कहेनेसें दिवापद समस्त दिवसमाप्तिके अर्थ है चन्द्रकी किरणोंसें जुष्ट इसप्रकारके कहेनेसें रात्रिपद समस्त रात्रिमास्यर्थ है औरभी शरदमें स्वच्छ अगस्तिके उदयसे संपूर्ण जल वृद्धसुश्रुतने हित कहाहै पोषमें सरोवरका पानी माघमें तालावका पानी फल्गुनमें कुवेका पानी चैत्रमें जौहडका पानी हित कहाहै ॥ ६३ ॥ वैशाखमें झरनेका जल और ज्येष्ठमें औद्भिद प्रशस्त है आषाढमें कूवेका और श्रावणमें आन्तरिक्ष प्रशस्तहै ॥ ६४ ॥ भाद्रपदमें कुवेका जल प्रशस्त होताहै आश्विनमें चौंज्य कर्तिक और मार्गशीर्षमें जलमात्र प्रशस्तहै ॥ ६५ ॥ जलग्रहणका काल प्रायः भूमिके जलका ग्रहण प्रातःकालमें प्रशस्त है क्योंकी शीतलता और निर्मलता उनका गुणहै इसवास्ते ॥ ६६ ॥ अधिक जलके पीनेसें अन्नपरिपाक नहीं होता और जलके पीनेसे वोही दोष होताहै इसवास्ते मनुष्य अग्निद्धिके अर्थ जलकों वारंवार पावै ॥ ६७ ॥ अब शीतलजल पानका विषय मूर्छा पित्त उष्ण दाहमें और पित्तरक्त मदात्यय श्रम भ्रम विदग्ध अन्न तमकमें तथा वमनमें ॥ ६८ ॥ ऊर्ध्वग रक्तपित्तमेंभी शीतल जल प्रशस्तहै. अथ जलनिषेधः तस्यावश्यकता च. पार्श्वशूले प्रतिश्याये वातरोगे गलग्रहे ॥ ६९॥ आध्माने स्तिमिते कोष्ठे सद्यः शुद्धौ नवज्वरे । For Private and Personal Use Only
SR No.020370
Book TitleHarit Kyadi Nighant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangilal Pandit, Jagannath Shastri
PublisherHariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
Publication Year1892
Total Pages370
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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