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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतानवर्गः। २८७ शुलाजीर्णविबन्धनं कोष्ठशुद्धिकरं परम् ॥ १५३ ॥ न भवेत्काञ्जिकं यत्र तत्र कालिः प्रदीयते । आममाम्रफलं पिष्टं राजिका लवणान्वितम् ॥ १५४ ॥ भृष्टहिङ्गुसमायुतं घोलितं जालिरुच्यते। जालिहरति जिह्वायाः कुण्ठत्वं कण्ठशोधनी ॥ १५५॥ मन्दमन्दं तु पीता सा रोचनी वन्हिबोधिनी । तुर्याशेन जलेन संयुतमतिस्थूलं सदम्लं दधि ॥ १५६ ॥ प्रायो माहिषमम्बुकेन विमले मुद्भाजने मालयेत् । भृष्टं हिङ्गु च जीरकं च लवणं राजी च किञ्चिन्मिताम् । पिष्ट्वा तत्र विमिश्रयेद्भवति तत्तकं न कस्य प्रियम् ॥१५७॥ तकं रुचिकरं वह्निदीपनं पाचनं परम् । उदरे ये गदास्तेषां नाशनं तृप्तिकारकम् ॥ १५८ ॥ विदाहीन्यन्नपानानि यानि भुङ्क्ते हि मानवः । तद्विदाहप्रशान्त्यर्थं भोजनान्ते पयः पिबेत् ॥ १५९ ॥ टीका-कांजीकी विधि वटकके अवसरमें कही है कांजी रोचन रुचिकों करनेवाली पाचन अग्निदीपनहै और शूल अजीर्ण विवन्धकों हरता तथा परम कोष्ठशुद्धिको करनेवाला है ॥१५३॥ जहांपर कांजी न हो वहांपर कालिः दो जाती है अ. नन्तर कांजी कच्चे आमके फलकों पीसकर राई और लवणसे युक्त ॥ १५४ ॥ भूनी हीङ्गके सहित घोली हुईकों जालि कहते हैं जीभकी कुंठताकों जालि हरती है और कण्ठकी शोधन है ॥ १५५ ॥ मन्दमन्ह पीहुई वोह रोचन अग्निकों जगानेवालीहै चौथाई जलसे युक्त अतिस्थूल अच्छा खट्टा दही ॥१५६ ॥ प्रायः भैसका जलसें विमल मिट्टीके वरतनमें रख्खे भूनाहुवा हींग जीरा लवण राईभी कुछ युक्त पीसके उसमें मिलावै वोह महा किसके प्रिय नहीं होता ॥ १५७ ॥ महा रुचिकर दीपन पाचन और उदरके जो रोग हैं उनको हरता तृप्तिकारक है ॥१५८॥ मनुष्य जिन विदाहि अन्नपानोंका भोजन करता है उसके विदाहप्रशान्तिके अर्थ भोजनके अन्तमें दुग्ध पीवै ॥ १५९ ।। दुग्धवर्गमें दुग्धके और गुण कहेहैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020370
Book TitleHarit Kyadi Nighant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangilal Pandit, Jagannath Shastri
PublisherHariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
Publication Year1892
Total Pages370
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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