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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shri Kailassagarsuri Gyan श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे हरीतक्यादिवर्गः। दक्ष प्रजापति स्वस्थमश्विनौ वाक्यमूचतुः । कुतो हरीतकी जाता तस्यास्तु कति जातयः ॥ १॥ रसाः कति समारख्याताः कति चोपरसाः स्मृताः। नामानि कति चोक्तानि किंवा तासां च लक्षणम् ॥२॥ के च वर्णा गुणाः के च का च कुत्र प्रयुज्यते । केन द्रव्येण संयुक्ता कांश्च रोगान् व्यपोहति ॥ ३॥ टीका-स्वस्थ प्रजापतिको अश्विनीकुमारोंने पूछा की, हरीतकीकी अर्थात् हरडेकी उत्पत्ति कहांसें है और उनकी कितनी जात हैं ॥१॥ तथा उसमें रस कितने हैं और उपरस कितने होते हैं और इसके नाम कितने हैं और उनका लक्षण क्या है ॥२॥ और उनके वर्ण तथा गुण कितने हैं और कोनकों कहांपर देनी चाहिये और कोनसे द्रव्यके साथ देनेसें कोनसे रोगोंका नाश करती है ॥ ३ ॥ प्रश्नमेतद्यथा पृष्टं भगवन् वक्तुमर्हसि । अश्विनोर्वचनं श्रुत्वा दक्षो वचनमब्रवीत् ॥ ४ ॥ टीका-हे भगवन् , जैसे यह प्रश्न हमने पूछा है ताळू आप कहिवेकू समर्थ हो. ऐसा अश्विनीकुमारोंका वचन सुनकर दक्षप्रजापति कहत भये ॥ ४ ॥ पपात बिन्दुर्मेदिन्यां शकस्य पिबतोऽमृतम् । ततो दिव्यात्समुत्पन्ना सप्तजातिहरीतकी ॥५॥ टीका-जिससमय इन्द्रने अमृत पीया उससमय उसमेसें एक बूंद पृथ्वीमें गिरा. फिर उस अमृतकी बूंदसें सात जातकी हरीतकी उत्पन्न होत भई ॥ ५॥ हरीतक्यभया पथ्या कायस्था पूतनाऽमृता । For Private and Personal Use Only
SR No.020370
Book TitleHarit Kyadi Nighant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangilal Pandit, Jagannath Shastri
PublisherHariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
Publication Year1892
Total Pages370
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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