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छलक-छाती
कपट जाल, माथा ।-छिद्र-पु० दे० छलकपट' । छेव*-1 काना क्षार करना, भस्म करना । पु० दे० 'छल-छिद्र' । -योजन-पु० ( मैनिपुलेशन) छहरीला-वि० छितरानेवाला; दे० 'छरहरा', चुस्त । चतुराईसे अयथार्थ या बनावटी रूप दे देना; ऐसी चाल छहियाँ*-स्त्री० छाया। चलना जिससे कोई वस्तु मनोनुकूल रूप ग्रहण कर ले । छाँगना-60 क्रि० काटना, छाँटना (डाल इ०)। . छलक, छलकन*-स्त्री० छलकनेका भाव ।
| छाँगुरी-पु. वह जिसके पंजेमें छ उँगलियाँ हों। छलकना-अ० क्रि० मुँहतक भरे हुए जल या दूसरे तरल | छाँछ*-स्त्री० मट्ठा, मही। पदार्थका हिलनेके कारण बरतनके बाहर गिरना; उछलना; छाँट-स्त्री० छाँटनेकी क्रिया या ढंग; कतरनेकी क्रिया या उमड़ना।
ढंग; छाँटकर अलग की हुई बेकार चीज; भूसी; कै, वमन । छलकाना-सक्रि० बरतनमें भरे हुए जल आदिको हिला- छाटन-स्त्री० छाँटनेसे निकली हुई बेकार चीज; कतरन । कर गिराना।
छाँटना-स० क्रि० काटना, कतरना; चुनना, बिलगाना; छलछलाना-अ० कि० आँखोंका भर आना, आर्द्र हो __ अनाजको साफ करनेके लिए कूटना, फटकना; कतरकर जाना।
छोटा करना; निकालना, दूर करना (साबुनका मैल, छलन-पु० [सं०] छलना, ठगना, कपट ।
दवाका कफ छाँटना); किसी चीजके ज्ञान, पांडित्यका छलना-सक्रि० धोखा देना, ठगना । स्त्री० [सं०] छल, प्रदर्शन करना (ज्ञान, कानून, पंडिताई छाँटना)। धोखा, वंचना।
छाड़ना -स० क्रि० दे० 'छोड़ना' । छलनी-स्त्री० छाननेका आला, झीना कपड़ा या चमड़े, छाँद-स्त्री० छाननेकी रस्सी; नोई । लोहे, पीतल आदिकी जाली मढ़ी हुई बँजड़ीकी शकलकी | छाँदना-स० कि० बाँधना, कसना; (चरनेके लिए) जानचीज जिससे आटा चालते हैं। मु०-कर देना-छेदोंसे वरोंके अगले या पिछले पैर एक साथ बाँधना । भर देना, जर्जर कर देना । -में डालकर छाजमें | छांदस-वि० [सं०] छंद-संबंधी; वेद-संबंधी, वैदिक; वेदश, उड़ाना-(किसीके ) थोड़ेसे दोषको लेकर बहुत ज्यादा वेदपाठी । पु० वेदपाठी, ब्राह्मण, श्रोत्रिय । बदनाम करना, तिलका ताड़ बनाना ।-हो जाना-फट- छाँदा-पु० पकवान; परोसा; हिस्सा । चिथकर बेकार हो जाना, जर्जर हो जाना।
छांदोग्य-पु० [सं०] सामवेदका एक ब्राह्मण उक्त ब्राह्मणकी छलहाया*-वि० छली। [स्त्री० 'छलहाई'।]
उपनिषद् जो मुख्य दस उपनिषदोंमेंसे है। छलाँग-स्त्री० चौकड़ी, कुदान, उछाल ।
छाँव-स्त्री० दे० 'छाँह'। छला-पु० दे० 'छल्ला't कांति, दीप्ति ।
छाँवड़ा*-पु० छौना, पशुशावक छोटा बालक । छलावरण-पु० [सं०] दे० 'छनावरण' ।
छाँह-स्त्री० छाया; आश्रय-स्थान-'छाँही चाहत छाँह'छलाई*-स्त्री० कपट-भाव, धूर्तता।
वि० छायी हुई जगह; प्रतिबिंब, परछाई। -गीर-पु. छलावा-पु० भूत-प्रेतकी छाया जो झट अदृश्य हो जाय; छत्र, आईना। मु०-न छने देना-पास न आने देना। भूत-प्रेत; दलदल, श्मशान आदिमें रातको दिखाई देने -बचाना-पास न जाना। वाली रोशनी जो कुछ-कुछ क्षणपर दृश्य-अदृश्य होती| छाक-स्त्री० छकनेका भाव, तृप्ति; नशा, मस्ती; वह खाना रहती है, अगिया-बैताल; धोखा, जादू । मु०-खेलना- जो हलवाहों, चरवाहों आदिके खानेके लिए दोपहर में छलावे या अगिया-बैतालका यहाँसे वहाँ दौड़ते दिखाई भेजा जाता है; माठ।। देना।
छाकना*-अ० क्रि० दे० 'छकना। छलित-वि० [सं०] छला, ठगा हुआ।
छाग-पु० [सं०] बकरा। छलिया-वि० छली।
छागल-स्त्री०पाँवमें पहनेका एक गहना । पु०[सं०] बकरा। छली(लिन)-वि० [सं०] छल करनेवाला, धोखेबाज । छाछ-स्त्री० मट्ठा, मही। छलीक*-वि० छलिया, धोखा देनेवाला।
छाज-५० सीक या बाँसके छिलकोंका बना पात्र जिससे छल्ला-पु० बिना नग-नक्काशीकी, चाँदी-सोने आदिका तार अनाज फटकते हैं, सूप; छाजन; स्वांग।
यी हुई अँगूठी, कुंडली; कोई मंडलाकार वस्तु | जन-स्त्री० आच्छादन, कपड़ा-'छाजन भोजन प्रीतिसों कड़ी। -(ल्ले)दार-वि० जिसमें छल्ले हो, गिरदार, दीजे साधु बुलाय'-कबीर; छप्पर, अपरस । यूँघरवाले (बाल)।
छाजना-अ० क्रि० फबना, शोभा देना; सुशोभित होना । छल्ली-स्त्री०कच्ची दीवारके रक्षार्थ खड़ी की हुई पक्की दीवार ।
छाजा-पु० छज्जा; छाजन । छवा* पु० छौना, शावक; एड़ी-'छूटे छवानि लौं केस | छाजित*-वि० शोभित । बिराजत'-रसवि०।
छात-पु० छत्र, छतरी आश्रय । छवाई-स्त्री० छानेका काम; छानेकी उजरत ।
छाता-पु० छतरी ताड़के पत्तों, बाँसके छिलकों या लोहेकी छवाना-स० क्रि० छानेका काम दूसरेसे कराना। तीलियोंके ढाँचेपर बनी कपड़ेकी छतरी; छत्ता चौड़ी छवि-स्त्री० [सं०] शोभा, सुंदरता; चमक, कांति । छवैया-पु० छानेका काम करनेवाला।
छाती-स्त्री० धड़का पेटके ऊपरका, पेट और गरदनके बीचछहरना*-अ० क्रि० बिखरना, छिटकना।
का भाग, वक्षस्थल, सीना; स्तन; हिम्मत, हौसला।मु०छहराना*-अ० क्रि० छहरन।। स० क्रि० बिखराना, छिट- -कूटना-दे० 'छाती पीटना'। -छलनी होना
छाती।
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