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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० शु. २ व. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् , ७६१ खलु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तुकामाय, वन्दे खलु भगवन्तं ' तत्थगयं ' तत्रगत जम्बूद्वीपे राजगृहनगरस्य गुणशिलको. धाने समवसृतम् इहगया' इहगता-चमर वश्वाराजधानी स्थिताऽहम् , पश्यतु मां भगवान् तत्रगत इहगतम् , 'त्ति कडु' इति कृत्वा इत्युक्त्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्त्वा नमस्यित्वा सिंहासनारे ‘पुरस्थाभिमुही ' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वदिशाभिमुखी 'निसण्णा' निपग्णा=उपविष्टा । ततः खलु तस्याः काल्या देव्या अयमेतजाव संपाविउकामस्म दामिणं भगवंतं तत्थ गयं इह गया पासउ मं भगवं तत्थ गए इह गयं त्तिकटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सीहामणवरंसि पुरत्थाभिमुही निसण्णा तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुपरज्जित्था) यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अहंत भगवंतों के लिये मेरा नमस्कार हो । सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामनावाले श्रमण भगवान महावीर को मैं नमस्कार करती हूँ। जंबूद्वीप में राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में इस समय विराजमान उन भगवान को मैं इस चमर चंपा नाम की राजधानी में रही हुई नमस्कार कर रही हूँ। वहां पर रहे हुए वे प्रभु मुझे यहां पर रही हुई देखे। इस प्रकार कहकर उसने उनको वंदना की -नमस्कार कियो-वंदना नमस्कार करके फिर वह अपने उत्तम सिंहासन पर आकर पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके बैठ गई। इसके बाद उस काली देवी के यह इस प्रकार का यावत् मनः संकल्प उत्पन्न हुआ(सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्तए त्ति तत्थ गए इह गयं त्ति कटु वंदइ नमस, वंदित्ता, नमंसिता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुही निप्तण्णा-तएणं ती से कालीए देवीए इमेयारूवे जााव समुप्पज्जित्था) યાવત્ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા અહંત ભગવંતને મારા નમસ્કાર છે. સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની કામનાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને હું નમસ્કાર કરું છું. જંબૂ દ્વીપના રાજગૃહ નગરના ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં અત્યારે વિરાજમાન તે ભગવાનને હું આ ચમચંચા નામની રાજ ધોનાં રહેતી નમસ્કાર કરી રહી છું. ત્યાં વિરાજમાન તે પ્રભુ અહીં રહેતી મને જુએ. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વંદન કર્યા અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તે પોતાના ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર આવીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેસી ગઈ. ત્યારપછી તે કાળી દેવીને આ જાતનો થાવત્ મનઃ સંકલપ ઉત્પન્ન થયો કે– क्षा ९७ For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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