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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १९ पुण्डरीक कण्डरीकमरित्रम् पावस्स अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमण संकध्ये जाव झियायइ । एणं पोंडरीए अम्मधाईए एयम सोच्चा णिसम्म तव संभंते समाणे उठाए उट्ठेइ, उट्टित्ता, अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पग्राहिणं करेइ करित्ता, एवं वयासी - घण्णेसि णं तुमं देवाप्पिया ! जाव पव्वइए । अहणणं अधपणे३ जाव नो पत्रइत्तए । तं धन्नेसि णं तुमं देवाणुपिया ! जाव जीवियफले । तरणं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वृत्ते समाणे तुसिंणीए संचिट्ट, दोच्चंपि तच्चपि जाव संचिट्ठइ । तएर्ण पोंडरीए कंडरयिं एवं वयासी - अहो भंते ! भोगेहिं ? हंता अट्ठो तरणं से पोण्डरीए राया कोटुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता, एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवानुष्पिया ! कंडयस महत्थं जाव रायाभिसेअं उवटुवेह जाव रायाभिसेएवं अभिसिंचइ ॥ सू० ४ ॥ टीका- 'तणं से ' इत्यादि । ततः खलु स कण्डरीकः स्थविरैः सार्धं किंचित् कालम् ' उग्गं उग्गेणं' उग्रोग्रेण - अत्युग्रेण विहारेण विहरति । ततः पश्चात् ' समणत्तणपरितंते ' श्रमणत्त्रपरितान्तः = श्रमणधर्म परिपालने खिन्नः पुनः ३१ 'तएण से कंडरीए थेरेहिं सद्धि' इत्यादि । टीकार्थ - (तरणं) इसके बाद ( से कंडरीए ) वे कंडरीक ( रेहिं सद्धि) स्थविरों के साथ (किंचिकालं) कुछ काल पर्यन्त (उग्गं उम्मेणं ) अत्युग्रविहार करने में ( विहरइ ) लग गये ( तओपच्छा समणतण For Private and Personal Use Only 'root से कंडरी थेरेहिं सद्धि" इत्यादि । टीडअर्थ – (तएणं) त्यारपछी ( से कंडरीए ) ते 15 ( थेरेहि सद्धि ) स्थविरोनी साथै ( किं चिकालं ) थोडा वणत सुधी तो ( उग्गंउगेणं) अतीव विहार ४२वामां ( ब्रिहरइ ) अवृत्त थया ( तओ पच्छा समणचण परितंते )
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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