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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir T शीताधर्मकथाpet नमस्त्विा प्रतिनिवृत्तः । ततः खलु कण्डरीकः ' उट्टाए ' उत्थया = उत्थानशक्त्या उत्तिष्ठति, उत्थया उत्थाय ' जात्र ' यात्रत् स्थविरान् वन्दिला नमस्थित्वा एवमवदत् - ' से जहेयं तुब्भे वदह' तद्यथेदं यूयं वदथ = हे देवानुमियाः ! यूयं यथा यद् वदथ, तत्तथैव, ' जं णवर ' यन्नवर = यो विशेषः सचैत्रम् - यदह पूर्व पुण्डरीकं राजानम् आपृच्छामि । ततः खलु ' जाव पव्वयामि ' पावत् पव्रजामि | डिगए) इसके बाद कंडरीक युवराज स्थविरों को वंदना करने के लिये जानेवाले अनेक मनुष्यों का कोलाहल सुनकर महाबल राजा की तरह स्थविरों के पास गया वहां जाकर उसने उनकी वंदना की- - नमस्कार किया । वंदना नमस्कार कर फिर उसने उनकी पर्युपासना की । स्थविरों ने धर्म का उपदेश दिया। उस उपदेश को सुनकर पुंडरीक श्रमणोपासक बन गया। बाद में वह स्थविरों को वंदना और नमस्कार कर अपने स्थान पर वापिस वहां से लौट आया । (तणं से कंडरीए उडाए उट्ठेह, उट्ठाए उट्ठत्ता जाव से जहेयं तुन्भे वदह, जं णवरं पुंडरीयं रायं आपुच्छामि, तरणं जाव कवयामि - अहासुहं देवाणुप्पिया । तएण से कंडरीए जाव थेरे वंद, नमंसह, वंदित्ता नमसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्as) इसके बाद कंडरीक उत्थानशक्ति से उठा - उत्थानशक्ति - उठने की शक्ति से उठकर उसने स्थविरों को वंदना की - नमस्कार किया । वंदना नमस्कार करके फिर उसने उनसे इस प्रकार कहा- हे कहेंति, पुंडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए) त्यारपछी उंडरी युवराज સ્થવિરાની વંદના કરવા માટે ઉપડેલા અનેક માણસાના ઘાંઘાટ સાંભળીને મહાખલ રાજાની જેમ સ્થવિરાની પાસે ગયા. ત્યાં જઈને તેણે તેમને વંદન અને નમસ્કાર કર્યો. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમની પયુ પાસના કરી. સ્થવિરાએ ધર્મોપદેશ આપ્યા, તે ઉપદેશને સાંભળીને પુડરીક શ્રમણાપાસક બની ગયે. ત્યારપછી તે સ્થવિાને વંદન તેમજ નમન કરીતે પેાતાના નિવાસસ્થાને પાછે. આવત રહ્યો. ( तपण से कंडरीप उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठाए उट्ठित्ता जाव से जहे यं तुभे वदह जं णवर पुंडरीयं राय आपुच्छामि, तरणं जाव पव्वयामि - अहासुहं देवाणुपिया ! तएण से कंडरीए जाव थेरे वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमसित्ता थेराण अतियाओ पडिनिक्खमइ ) ત્યારપછી કડરીક ઉત્થાન શક્તિ વડે ઊભેા થયા, ઉત્થાન શકિત-ઊભા થવાની શક્તિ વડે ઊભા થઈને તેણે સ્થવિરાને વંદન તેમજ નમસ્કાર કર્યાં. વંદના અને નમસ્કાર કરીને તેણે તેમને આ પ્રમાણે વિનંતી કરતાં કહ્યું કે For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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