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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३८ ज्ञाताधर्मकथा भदन्त ! कृष्णं वासुदेवमुत्तमपुरुष पश्यामि ततः खलु मुनिसुव्रतोऽर्द्दन् कपि वासुदेवम् एवमवादीत्-नो खल हे देवानुप्रिय ! एवं भूतं वा भवति वा भविष्यति यत् खलु अर्छन् अर्हन्तं पश्यति, चक्रवर्ती वा चक्रवर्तिनं पश्यति बलदेव वा बलदेवं पश्यति वासुदेवो वा वासुदेवं पश्यति, तथा ऽपि च खलु त्वं अह भंते ! कन्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि ) इस प्रकार सुनकर उस कपिल वासुदेव ने मुनि सुव्रत प्रभु को वंदना की - नमस्कार किया वंदना नमस्कार करके फिर उनसे इस प्रकार कहा - हे भदंत ! मैं जाता हूँ और उत्तम पुरुष उन कृष्णवासुदेव से कि जो मेरे जैसे पुरुष हैं - वासुदेव पद के धारक हैं - जाकर मिलता हूँ । (तएणं मुणि सुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी) तब मुनि सुव्रत प्रभु ने उस कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा - ( नो खलु देवाणुप्पिया ! एवं भूयं वा ६ जण्णं अरहंतो, वा अरहंतं पासह, चकवट्टी वा चक्कवहिं पाम, बलदेवो वा, बलदेवं पासह, वासुदेवो वा वासुदेवं पासइ) हे देवानुप्रिय ! ऐसी बात न हुई है, वर्तमान में न होती है और न भवियत्काल में होनेवाली है कि जो एक तीर्थकर दूसरे तीर्थकर से मिलें, एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती से मिले, एक बलदेव दूसरे बलदेव से मिलें, एक वासुदेव दूसरे वासुदेव से मिलें । ऐसा सिद्धान्त का नियम है कि एक तीर्थकर का दूसरे तीर्थकर से कभी भी मिलाप नहीं होता है । अहते ! कन्दं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि ) આ પ્રમાણે સાંભળીને તે કપિલવાસુદેવે મુનિસુવ્રત પ્રભુને વંદન તેમજ નમન કર્યાં. વદન અને નમન કરીને તેમની સામે આ પ્રમાણે વિનતી કરતાં કહ્યું કે હે ભદંત! હું જાઉ છું અને જઇને મારા જેવા તે ઉત્તમ પુરૂષ કૃષ્ણ वासुदेव ! यो वासुदेव पहने शोलावे हे- तेभने भजु छु. ( तरणं मुणि सुव्वए भरा कबिल' वासुदेव एवं वयासी) त्यारे भुनिसुव्रत असे ते उचित વાસુદેવને આ પ્રમાણે કહ્યું કે ( नो खलु देवाणुप्पिया ! एवं भूयं वा ३ जष्णं अरहंतो वा अरहंतं पासइ, arrant वा चक्कवर्हि पासर, बलदेवो वा बलदेवं पासर, वासुदेवो वा वासुदेवं पासइ) હૈ દેવાનુપ્રિય ! એવી વાત કાઈ પણ દિવસે સંભવી નથી, વત માનમાં પણ સ'ભવી શકે તેમ નથી અને ભવિષ્યકાળમાં પશુ સભવી શકશે નહિ કે એક તીર્થંકર ખીજા તીર્થંકરને મળે, એક ચક્રવર્તી ખીજા ચક્રવર્તીને મળે, એક બળદેવ બીજા મળદેવને મળે. આ જાતના સિદ્ધાન્તના નિયમ છે કે એક For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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