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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नगारधामृतषिणी २० म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणन् .. पभनाभमापृच्छति, पृष्ट्वा यावत् पद्मनाभेन राज्ञा सत्कारं पाप्य प्रतिगतः-उत्पतनी विद्यया गगनमुद्ययन् प्रतिगत इत्यर्थः। ततः खलु स पद्मनाभो राजा कच्छुल्लनारदस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वाआकर्ण्य निशम्य हयवधार्य द्रौपद्या देव्या रूपे च यौवने च लावण्ये च मूच्छितः= आसक्तः, गृद्धः = लोलुपः, ग्रथित: निबद्धचित्तः, अध्युपपन्नः = एकाग्रचित्तः सन् यत्रैव पौषधशाला तवोपागच्छति, उपागत्य पौषधशालां प्रमायं यावदष्टमभक्तं कृत्वा ' पूर्वसंगतिकं ' पूर्वमित्रं देवम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आदीत्-एवं खलु हे देवानुपिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरे पाण्डवभार्या द्रौपदी देवी यावत्-उत्कृष्टशरीरा वर्तते, तत्-तस्माद् इच्छामि खलु हे देवानुपिय ! भी नहीं है। ऐसा मैं जानकर ही कह रहा हूँ। द्रौपदी के जैसी कोई भी नारी नहीं है। इस प्रकार कहकर वे कच्छुल्ल नारद वहां से चलने के लिये अभिलाषी बन गये-तब उन्होंने पद्मनाभ राजा से जाने के लिये पूछा पूछकर यावत् वे वहां से पद्मनाभ राजा से सत्कृत होकर उत्पतनी विद्या के प्रभाव से गगन तल को उल्लंघन करते हुए वापिस चले गये। इसके बाद वे पद्मनाभ राजा कच्छुल्ल नारद के मुख से इस समाचार रूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन एवं लावण्य में मूच्छित ४ बन गये, यावत् उनका चित्त उन में बिलकुल एकाग्र हो गया। इस तरह होकर, वे जहां पौषधशाला थी वहां गये । ( उवगच्छित्सा पोमहसालं जाव पुन्वसंगइयं देवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! નથી. આ પ્રમાણે કહીને તે કચ્છલ્લ નારદ ત્યાંથી ચાલવા માટે તિરયા થઈ ગયા. તેમણે પદ્મનાભ રાજાને જવા માટે પૂછયું, પૂછીને યાવત ત્યાંથી તેઓ પદ્મનાભ રાજાની પાસેથી સત્કૃત થઈને ઉ૫તની વિદ્યાના પ્રભાવથી આકાશને ઓળંગતા જતા રહ્યા. ત્યારપછી તે પદ્મનાભ રાજા કચ્છલ નારદના મુખથી આ સમાચારને સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને દ્રૌપદી, દેવીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી મૂછિત ૪ થઈ ગયા, થાવત્ તેમનું મન તેમાં એકદમ ચેંટી ગયું. આ સ્થિતિમાં તેઓ જ્યાં પૌષધશાળા હતી ત્યાં ગયા. (उवागच्छित्ता पोसहसालं जाव पुव्वसंगइयं देवं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबू दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा तं इच्छामि गं देवाणुणिया ! दोबई देवी इस्माणियं तरणे पुम्बसंगदए देवे पउमनाभं एवं For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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