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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माताधर्मकथासूत्रे ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या उन्मुक्तबालभावा यावद् उस्कृष्टा, उत्कृष्टशरीरा जाता चाप्यभवत् । ततः खलु तां द्रौपदी राजवरकन्यामन्यदा कदाचिद् 'अंते उरियाओ' आन्तः पुरिक्यः अन्तः पुरवर्तिन्यः स्त्रियः स्नातां यावत्-वस्त्राकंकारविभूषितां कुर्वन्ति कृत्वा द्रुपदस्य राज्ञः पादौ वन्दितुं 'पेसंति ' प्रेषयन्ति, ततः खलु सा द्रौपदी राजवरकन्या यत्रैव द्रुपदो राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य द्रुपदस्य राज्ञः पादग्रहणं करोति, ततः खलु स द्रुपदो राजा द्रौपदी दारिकामङ्के होकर इस तरह पलने पुषने लगी कि जिस तरह गिरि की कंदरा के प्रदेशमें उत्पन्न हुई चंपकलता वात रहित निरुपद्रव स्थान में आनन्द के साथ पलती पुषती है । (तएणं सा दोवई रायवरकना उम्मुक्कबालभावा, जाव उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होस्था, तएणं तं दोवइं रायपरकन्नं अण्णया कयाई अंते उरियाओ हायं जाव विभूसियं करेंति, करित्ता दुवयस्स रपणो पाए वंदिउं पेसंति ) वह राजवर कन्या द्रौपदी पालभाव रहित होकर जव यौवन अवस्था वाली हो चुकी तब इस के शरीर में लावण्य की चमक से विषय सौन्दर्य आ गया-अत: उस समय यह विशेषरूप से उत्कृष्ट शरीर वाली बनगई । किसी एक दिन की बात है कि अंतः पुर को स्त्रियों ने द्रौपदी को स्नान कराकर यावत् घस्त्रालंकार से विभूषित किया-और विभूषित कर के द्रुपद राजा की चरण वंदना करने के लिये भेज दिया (तएणं सा दोवइ राय० जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता, दुवयस्स रगो पायग्रहण करेइ, દારિકા પાંચ ધાયમાતાએથી યુક્ત થઈને આ પ્રમાણે લાલિત પાલિત થવા માંડી જેમકે પર્વતની કંદરાના પ્રદેશમાં ઉત્પન્ન થયેલી ચંપકલતા નિર્વાત, नि३५द्र स्थानमा सुमेथी मेरी यती न डाय ! (.एण सा दोबई रायवर. कन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव उकिदुसरीरा जाया यावि होत्या, तएणं तदोवई रायवरकन्नं अण्णया कयाई अते उरियाओ व्हाय जाव विभूसिय करें ति करिता दुवयस्स रणो पाए वंदिर पेसति) ते २०४१२ :न्या, द्रौपदी भयपण पटापान જ્યારે યુવાવસ્થા સંપન્ન થઈ ગઈ ત્યારે તેના શરીરમાં લાવયના ચમકથી સવિશેષ સૌદ દ્વિીપી ઉઠયું. તેથી તે વખતે તે વિશેષ રૂપથી ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી થઈ ગઈ હતી. કેઈ એક દિવસની વાત છે કે રણવાસની સ્ત્રીઓએ દ્રૌપદીને સ્નાન કરાવ્યું યાવત્ વસ્ત્રાલંકારોથી વિભૂષિત કરી અને વિભૂષિત કરીને २५६ २रानी य२९ ! ४२॥ भाटे भसी . (तएण' मा दोवइ राय. जेणेव दुवए राया तेणेब उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेइ, तएण For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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