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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 444 ज्ञाताधर्मकथासूत्रे शारंदिकं यावत्- स्नेहावगाढम् आहारितस्य= भुक्तवतः सतो मुहूर्तान्तरेण परिण म्यमाने = आहारे परिणाम प्राप्ते सति शरीरे वेदना प्रादुर्भूता सा कीदृशी ? त्याहउज्ज्वला = वीवा, याबद् दुरहियासा' दुरध्यासा=दुरधिसहा - असह्येत्यर्थः । ततः खलु से धर्मरुचिरनगारो ऽस्थामा, हीनपराक्रमः, अवल:- मनोबलरहितः अवीर्यः = हतोत्साह : अपुरुषकार पराक्रमः, पुरुषार्थहीनः, ' अधारणिज्जमितिकट्टु ' अधार णीयमिति कृत्वा - धारयितुमशक्यमिदं शरीरमितिमनसि विचार्य ' आयारभंडगं आचारमाण्डकम् - आचाराय आचारपालनार्थ भाण्डक =भाण्डोपकरणं वस्त्रपात्रादिक धम्मरुइस्स त सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुह तरेण परिणममाणसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जलो जाव दुर हियासा-तरण से धम्मरुई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिस कारपरक अधारणिज्जमित्ति कटु अपारभंडगं एगंते ठवेइ, ठवि ता डिल्लं पडिलेड, पडिलेहित्ता दग्भसंधारगं संधारेह, संधारित दभसंधारगं, दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्याभिनु संगलियंक निसन्ने कर o परिहिये एवं वयासी ) शाक उन धर्मरुचि अनगार के पेट में P Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वते ही एक मुहूर्त के बाद जब वह पचने लगा तब उनके शरी में उज्ज्वल यावत् दुरधिध्यास वेदना प्रकट हुई। इस से वे धर्मरुचि अनगार पराक्रम से हीन, मनोबल से विहिन, हतोत्साह होकर पुरुवार्थ रहित बन गये । यह शरीर अब धारण करने से अशक्य हो रहा है ऐसा जब उन्होंने प्रतीत होने लगा तब उन्होंने अपने आचारभांडक पंचविध आचार पालने के लिये जो वस्त्र - पात्रादिक थे उनको - एकान्त में रख दिया - रखकर फिर उन्हों ने संस्तारक भूमि की ( aणं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जात्र नेहावगाढं : आहारियस्स समा णस्स मुहुत्तंतरेणं परिणममाणंसि सरीरंगंसि वेणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा - तरणं से धम्मरूई अणगारे अथामे, अबले अवीरिए अपुरिसकारपरTea अधारणिज्जमित्ति कट्टु आयारभंडगं एगंते ठवेइ, ठविता थंडिल्लं पडिलेहेर, पडिलेहिता दभसंधारगं संथारेद, संधारिता दभसंधारगं दुरुह दुरुहित्या पुरस्थाभिमुद्दे से पलियेक निसन्ने करयलपरिगहियं एवं वयासी શાક તે ધરુચિના પેટમાં પહોંચતાં જ એક મુહૂત પછી જ્યારે તેનું પાચન શરૂ થયું ત્યારે તેમના શરીરમાં ઉજ્વલ યાવત્ દુરભિધ્યાસ વેદના થવા માંડી. તેથી તે ધરુચિ અનગાર પરાક્રમ વગર, મનેાખળ વગર હુતાત્સાહી થઈ ને પુરુષાર્થ વગર ખની ગયા. હવે આ શરીર ટકવું અશકય થઇ પડયુ છે એવી જ્યારે તેને પ્રતીતિ થવા લાગી ત્યારે તેમણે પાતાના આચાર For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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