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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) यदि सब प्रसत् हो तो अगला भाग भी क्यों दीखता है ? सभी श्रदृश्य क्यों नहीं ? अथवा सभी दृश्य क्यों नहीं ? अथवा पिछला दोखे और अगला नहीं, ऐसा क्यों ? ७७ (५) स्फटिकादि में पिछला भाग भी दीखता है, अतः इतना तो सिद्ध होने से सर्व सत् तो नहीं रहा ! यदि इसे भी असत् कहते हो, तो सर्व शून्य की सिद्धि के लिए 'परभाग प्रदर्शन' हेतु रक्खा है वह गलत सिद्ध होगा; 'सर्वादर्शन' हेतु ही कहना चाहिये । परन्तु वह तो विरुद्ध है, नहीं तो 'सम्पूर्ण नहीं दीखता, अतः सम्पूर्ण प्रसत् है' ऐसा करके दीवार अथवा कुएं की ओर प्रांख बन्द कर चलने लगा, तो कुएं में गिरोगे, श्रथवा दीवार से टकराभोगे । (६) 'पिछला भाग प्रत्यक्ष होने से नहीं है' ऐसा कहने पर अगला प्रत्यक्ष है अतः कम से कम प्रत्यक्ष साधन इन्द्रिय श्रीर विषय की सत्ता प्राप्त होती है ! ये भी यदि भसत् हो, तो प्रत्यक्ष - श्रप्रत्यक्ष का विभाग ही घटित नहीं हो सकता । (७) बाकी अप्रत्यक्ष भी वस्तु होती है, जैसे कि 'सभी असत् है क्या ?" ऐसा संशय यह कोई वस्तु है । अगर यह संशय भी असत् हो तो इसका विषय (सर्व - शून्यता) क्या ? संशय श्रसत् प्रर्थात् भूतों का संशय ही नहीं, तो भूत सत् सिद्ध होंगे ! अब यह देखिये कि पिछला भाग प्रप्रत्यक्ष होने पर भी अनुमान से सिद्ध है । जगत में कई वस्तु अनुमान से मान्य होती है, जैसे कि - अप्रत्यक्ष वस्तु अनुमान से सिद्ध होने के उदाहरण: वायु यह स्पर्श, शब्द, स्वास्थ्य, कंपन श्रादि गुरण के श्राश्रय गुणी के रूप में गम्य है। ठंडी पवन लहरी के स्पर्श से कहते हैं 'वायु ठंडा बह रहा है ।' पवन की दिशा में शब्द सुना जाता है विरुद्ध दिशा में नहीं; इससे सूचित होता है कि उस शब्द का प्राश्रय वायु उस दिशा में बह रहा है । - For Private and Personal Use Only श्राकाश यह पृथ्वी - पानी श्रादि के प्राधार रूप में सिद्ध है। पृथ्वी साधार है, मूर्त होने से; जैसे पानी का आधार पृथ्वी, वैसे पृथ्वी का आधार प्रकाश ।
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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