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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षणिकवाद उचित कैसे नहीं ? प्रश्न - क्षरण - परम्परा में संस्कार उतर लाने से स्मरण होता है न? एक नित्य श्रात्मा की क्या आवश्यकता ? उत्तर - परम्परा में भी एक श्रोतप्रोत व्यक्ति चाहिये, जो संस्कार को टिकाने के लिये आधार हो, अन्यथा ज्ञान और संस्कार सर्वथा नष्ट होने के पश्चात् ठीक वैसा ही स्मरण नहीं हो सकता । इसके प्रतिरिक्त (१६) जगत के सभी पदार्थों को क्षणिक रूप में देखे बिना 'जो कुछ सत् है वह क्षणिक है' ऐसा कौन जान सकता हैं ? इसी तरह स्वयं ही अगर क्षरण मात्र रह कर पश्चात् नष्ट हो, तो स्वयं को, प्रतीत भावी का, स्वयं के साथ कोई सम्बन्ध न होने से, 'अतीत काल में क्या हुआ था भविष्य में क्या होगा इसका कैसे पता चले ? तात्पर्य यह है कि द्रष्टा ज्ञाता एक अविनाशी मात्मा होनी चाहिये । प्रश्न - 'अपने जैसे सब', इस प्रकार सब को क्षणिक रूप से जान सकेन ? उत्तर इस प्रकार भी जानने के लिये, पहिले सब में अपने जैसा सत्पन जानना चाहिये । (अन्यथा असत् भी क्षणिक सिद्ध होगा ! 'भले हो,' कहना नहीं, क्षणिक यानी क्षरण में नाश; असत् का फिर नाश क्या ?) तभी वे सब सत् होने से क्षणिक है' ऐसा जाना जाए न ? किंतु यह सत्पन पहिले जानने जाए इतने में तो स्वयं नष्ट है, तो इस पर से सर्वं क्षणिक कौन जाने ? वास्तव में तो 'क्षण बाद में नष्ट हूँ ऐसा स्वयं अपना भी कैसे जाने यदि स्वयं ही क्षण भर बाद टिकता नही ? 'संस्कार से संस्कारित जान सकता है,' पर तब भी (i) संस्कार और संस्कारित एक साथ विद्यमान होने चाहिये, तथा (ii) संस्कार स्थायी अर्थात् अक्षरिक होने चाहिये । तात्पर्य यह है कि एक अविनाशी श्रात्मा मानो तो ही यह सब घटित हो सकता है । (२०) वेद में कथित दानादि के फल भी, देह से अगर भिन्न आत्मा हो, तभी घटित हो सकते है । 'तब देह में प्रविष्ट होती अथवा देह से For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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