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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीसरे गणधर : वायुभूति शरीर ही जीव है ? दो बड़े भाई इन्द्रभूति और अग्निभूति भगवान के शिष्य बनें, ऐसा समाचार सुन कर तीसरे भाई वायुभूति और अन्य विद्वान ब्राह्मण तो ऐसा ही सोचने लगे कि 'महावीर भगवान वस्तुतः सर्वज्ञ हैं; तो हम अपनी विद्वता का गर्व क्या रक्खें ? हम भी जाएँ महावीर प्रभु के पास, और उनको वंदन कर उनकी उपासना करें | इन्द्रभूति और अग्निभूति जैसे समर्थ विद्वान् भी जिनके चरण - सेवक बने ऐसे इन त्रिभुवन जन से वंदित महापुरुष के विनय-वंदना से हम भी पापरहित बनें और अपने संशय का निवारण करें ।' बस चलें εप्रमुख विद्वान अपने अपने परिवार के साथ प्रभु के प्रति । कैसे श्रद्धालु व तत्त्वरसिक ? 'अपने दो प्रधान अग्रणीने अगर प्रभु का शरण ले लिया, तो चलो हम भी यही करें,' यह श्रद्धा; व 'यदि सत्यतत्त्व का जीवन मिलता है' तो छोड़ो यह मिथ्या जीवन', यह तत्त्वरसिकता । सब से आगे अपने ५०० विद्यार्थियों के साथ वायुभूति प्रभु के पास जा खड़े हुए। उस काल में ग्रात्मविद्या का, धर्म-शास्त्रों को विद्या का कितना प्र ेम होगा कि एक एक के पास सैंकड़ों विद्यार्थी विद्याभ्यास कर रहे थे । इन ग्यारह में से प्रत्येक के पास सैंकड़ों विद्यार्थी थे, घर परिवार छोड़ कर वे लोग विद्यागुरू के साथ घूमते थे । वे विनीत और विवेकी भी ऐसे थे कि गुरू यदि For Private and Personal Use Only ५७
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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