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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५ इनमें से वर्तमान में जो लोग हिंसक, निर्दयी, दुराचारी आदि होते हुए लक्ष्मी आदि के लीन होते हैं । भी सुखी हैं, उनको पापानुबन्धी पुण्य का उदय गिना जाता है । कर्म - बन्धन अभी ही किया और तत्काल उनका उदय हुआ, बहुधा ऐसा नहीं होता है । जिन जीवों ने पूर्व भव में दान, शील, तप, प्रभु-भक्ति से पुण्योपार्जन किया तो है किंतु सांसारिक आकांक्षा से, उन्हें इस जन्म में मिलते हैं परन्तु दूसरी ओर हिंसादि पाप कार्यों में ये दुष्ट आकांक्षा की, अतः इसके कुसंस्कार यहां चले ग्राने से मोहमूढ राग व लालसाएं होती है । इसके विपरीत जिसने पूर्व में पापाचार किये हैं, परन्तु पीछे पश्चात्ताप और धर्म - कार्य किए हैं, उन्हें यहाँ पाप के फल दुःख तो वहन करने ही पड़ते हैं परन्तु साथ ही पूर्व के पाप - घृणा के सुसंस्कारवश सद्गुरू का समागमन, सद्वाचन, सद्विचार आदि के द्वारा धर्माराधन व सद्गुणाभ्यास करने को भी मिलता है । सद्गुणों को वह ग्रहण करता है । इससे नवीन सम्पत्ति में पुण्य इकट्ठा होता जाता है; इसे पुण्यानुबंधी प्रशुभ कर्म का उदय कहते हैं । इसमें जिनेश्वर देव के चरण कमल की पूजा में परायणता, दया, व सदाचार होते हैं । इन सब का फल भावी भव में प्राप्त होगा । सुख जरूर पूर्वं भव में व्यवहार में भी दीखता है कि लग्नादि प्रसंगों में भारी पदार्थ सीमा से रहना पड़ता है । प्राज कुछ भी नहीं For Private and Personal Use Only परे खाए पीए हों, तो फिर शरीर रुग्ण होता है और भूखा अब भूखा रहते समय यदि कोई कहे कि ये भाई साहब ने तो बस इस पर 'कम खाने से बीमारी होती है' । खाया फिर भी ये बीमार क्यों ? ऐसा नियम बना लें तो गलत हैं इसी तरह एक व्यक्ति के शरीर में शक्ति (Vitality) का प्रचार अच्छा हो उन दिनों में वह कदाचित् कुपथ्य सेवन कर ले, आवश्यकता से अधिक खा ले और फिर भी हृष्ट-पुष्ट होता दिखाई दे, और इस पर यदि कोई नियम बना ले कि 'अत्यधिक खाने से और भारी पदार्थ खाने से सुखी बनते हैं' तो यह नियम भी गलत । यहां जो रोग या श्रारोग्यता है, वह पूर्वाचरण का फल है, और वर्तमान में जो प्राचरण हो रहा है उसका फल तो भविष्य में मिलेगा । इसी प्रकार धर्म अधर्म और पुण्य पाप के
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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