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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिया हो तो परभव में मिलता है । इस प्रकार इन्द्रियों का दमन भी करना ही चाहिये; जिससे ये उच्छृखल बन कर प्रात्मा को तामस भाव में दुबो, पाप कर्मों से बांध कर भवांतर में निम्न कोटि के कीट प्रादि भवों के, या नरक के दुःखों में तंग नहीं करे। इस प्रकार 'द द द' का पालन तभी सार्थक माना जा सकता है कि यदि प्रात्मा जैसी देह से फिन्न वस्तु जगत में हो।" __ अब जगद्गुरु प्रभु महावीर देव आगे फरमाते हैं,-'हे गौतम इन्द्र. भूति ! 'विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रत्यसंज्ञाऽस्ति !' इस वेद पंक्ति का अर्थ तू इस प्रकार गलत बताता था कि "विज्ञानघन' पद के साथ जो ‘एव' पद लगा हुआ है, उसे तूने 'भूतेभ्यः' के साथ लगाकर 'पंचभत से ही प्रात्मा उत्पन्न होती हैं' ऐसा अर्थ लगाया; परन्तु सही तरह से वेदपंक्ति में 'एव' पद जहां रक्खा हुआ है वहीं लगाने का है जिससे सही अर्थ इस प्रकार निकलेगा : 'विज्ञानघन एव' अर्थात् विज्ञान का धन ही, विज्ञान अर्थात् विशेष ज्ञान, उपयोगरूप यानी स्फुररणरूप ज्ञान; परन्तु मात्र ज्ञानशक्ति, ज्ञानलब्धि नहीं । यह ज्ञान गुण प्रात्मा के स्वभाव रूप है, अत: वह प्रात्मा के अभेद भाव से होता है और इसीलिए प्रात्मा उन उन के ज्ञान उपयोगमय बनती है, अर्थात् ज्ञान का एक धन ही आत्मा बना । विज्ञान के साथ गाढ़ सम्बन्ध आत्मा का बनता है, इससे भी आत्मा विज्ञानघन कहलाती है । यहां विज्ञान पृथ्वी, पानी आदि भूतों को लेकर उत्पन्न होता है, अर्थात् ज्ञान घडे का होता है, वस्त्र का होता है, जल का होता है। अतः कहा जाता है कि ज्ञान पृथ्वी आदि विषयों से उत्पन्न हुग्रा; और प्रात्मा में अभेद भाव से ज्ञान उत्पन्न हुआ। इसका अर्थ यह हुआ कि नये नये ज्ञानस्वरूप आत्मा का उन उन ज्ञानों को ले कर जन्म हुआ; क्यों कि ज्ञान प्रात्मा का अभेदभाव है जैसे अंगुली सीधी हो उसे यदि टेढ़ी की जाए तो उसमें टेढ़ेपन की उत्पत्ति हुई; परन्तु टेढ़ापन अंगुली में अभेदभाव से है । टेढ़ापन अंगुली से बिल्कुल भिन्न ही नहीं, परन्तु अंगुली स्वरूप भी है। इससे ऐसा कहा जाता है कि अंगुली For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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