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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . २६ 'मैं अर्थात्, शरीर नहीं, परन्तु अनादि अनंत काल से कर्मो से दलित प्रात्मा" इत्यादि याद रख कर निराश होने की आवश्यकता नहीं। यह याद तो सिर्फ ईसीलिये रखनी है कि देह के धामों में लुब्ध हो कर अथवा फंस कर अपनी प्यारी प्रात्गा को भूल कर भयंकर कर्म-बंधन में उसे जकड़वाने की भूल न कर बैठे। शरीर को आवश्यकता है अच्छे जड़ पदार्थों की, विषयों, मान पान, सुख, वैभव और सत्ता की। ऐसी इस देह की लालसा में आत्मा मिथ्यामति, पापाचार, रागद्वेष, मद-माया तथा असद् बर्ताव वाणी-व्यवहार और विचारणा कर कर घोर कर्म बंधन से अपने आप को जकड़ती है। काया का तो क्या जकड़ा जाय ? यह तो उठ कर चल पड़ेगी। अरे ! यह तो अभी खड़ी रह कर प्रात्मा का निष्कासन करेगी। प्रात्मा के साथ संबंध रखने के लिये तनिक तैयार नहीं। प्रात्मा को दूसरी काया के जेल में बद होना पड़ेगा। वहां इन कर्म बंधनों के क्रूर विपाक रूप घोर दुःख सहन करने पड़ेंगे। इन से मुक्ति दिलवाने में सगा पिता अथवा प्राण वल्लभा भो असमर्थ है। फिर पुनः ऐसे कर्मों के फल भोगने के लिए प्राप्त दुर्गति के हल्के भव में धर्म की जरा भी समझ, श्रद्धा या प्रवृत्ति भी नहीं होती। फलतः कर्म की भयंकरता बढ़ती है। परिणामस्वरूप अनेकानेक हल्के भवों में दुःख और पीड़ा की भट्ठी में सेकाना पड़ता है, यह सब किसे ? अपने ही 'अपने' अर्थात् आत्मा को। तो बतायो कि उन दुःखों में से थोड़ा भी लेने वाले कौन हैं ? कोई भी नहीं। वैसे भलेबुरे कर्मों का फल कौन करता है ? शरीर नहीं, परन्तु भवचक्र में अनंतानंत काल से भ्रमण करती व ठोकरें खाती हुई अपनी तो प्रात्मा। फिर भी हताश होने या घबराने की आवश्यकता नहीं है क्यों कि अपना दूसरा स्वरूप अति सुन्दर है जिस पर प्राप जरा दृष्टिपात करें। अपने अर्थात में कौन ? (१) मैं अर्थात् देह और इन्द्रियों पर तप और त्याग से विजय प्राप्त करने वाली प्रात्मा। (२) मैं अर्थात् पूर्वोक्त मिथ्यामति प्रादि के बदले सम्यगदर्शन, पाप के पच्चक्खान, वैराग्य, प्रशांतता और सद्विचारणा आदि गुणों की अधिकारिणी आत्मा। (३) मैं अर्थात् काया की कैसी भी स्थिति होने पर भी For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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