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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५ (१७) कहीं कहीं भ्रम यानी विपरीतज्ञान भी किसी सत् वस्तु का ही होता है । जगत में चांदी जैसी वस्तु है तो दूर कलई के पतरे का टुकड़ा देख कर भ्रम होता है कि यह चांदी ही है। इसी प्रकार प्रात्मा जैसी वस्तु है इसी लिए नास्तिक को शरीर पर भ्रम होता है कि यह प्रात्मा ही है । (१८) प्रतिपक्ष भी किसी सत् सिद्ध वस्तु का ही होता है । आर्य है तभी म्लेच्छ को अनार्य कहते हैं। इसी प्रकार कहीं दया, सत्य, नीति जैसी वस्तु है तभी निर्दयता-असत्य-प्रनीति होने की बातें होती है। इसी तरह लकड़ी, मुर्दा आदि का अजीव के रूप में तभी व्यवहार हो सकता है यदि जीव जैसी कोई वस्तु हो। (१६) निषेध भी किसी सत् वस्तु का ही होता है। यद्यपि यह सत् अन्यत्र हो परन्तु जहां निषेध हो वहां नहीं, जैसे-हरिलाल कहीं जीवित हो तभी कहा जाता है कि हरिलाल घर में नहीं है। कहीं डित्थ जैसी कोई सत् वस्तु ही नहीं, तो इस पर 'यहां डिस्थ नहीं' ऐसा नहीं कहा जाता । इसी प्रकार 'देह में जीव नही,' 'देह जीव नहीं' ऐसा, अगर जगत में जीव जैसी वस्तु हो, तभी कह सकते हैं । सारांश यह है कि जिसके सदेह-भ्रम-प्रतिपक्ष-निषेध हो, वह सत् सिद्ध वस्तु होती है । प्रश्न-ऐसे तो जैन कहते हैं कि 'जगत्कर्ता ईश्वर नहीं' तो क्या इस निषेध से जगत्कर्ता ईश्वर सिद्ध नहीं होता ? उत्तर- नहीं, यहां निषेध किसका है यह समझने योग्य है। निषेध संयोग, समवाय, सामान्य और विशेष इन चार का होता है; जैसे-(१) घर में देवदत्त नहीं है'-यह देवदत्त के संयोग का निषेध है। (२) 'गर्दभ-शृग नहीं'-इसमें गर्दभ में शृंग के समवाय का निषेध है, परन्तु पूरे गर्दभ-शृंग का नहीं। (३) 'दूसरा चन्द्र नहीं', इसमें एक चन्द्र के समान अन्य चन्द्र का निषेध है । विद्यमान चन्द्र में अन्य की समानतम अर्थात सामान्य नहीं । (४) 'घड़े For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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