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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निरालम्ब, प्रश्रयरहित, निर्मल निर्लेप, गुप्तेन्द्रिय, रागद्व ेष-विहीन, निर्मम, श्रप्रमत्त......इत्यादि विशुद्ध आत्मस्वरूप वाले प्रभु ने ऋजुवालुका नदी के तीर पर वैशाख शुक्ला १० की सायं केवलज्ञान प्राप्त किया और वे लोकालोक के ज्ञाता बने । और जानते हैं और भविष्य में केवलज्ञान में क्या ? अब तो सर्वज्ञ बने हुए सारे पुद्गलों के अनंतानंत काल के पर्याय ( अवस्थाएं ) पड़े हुए श्रावले को भाँति स्पष्ट देखते अनादि काल से आज तक जो अनंत जीव सिद्ध हो चुके हैं सिद्ध होंगे उनकी अपेक्षा अनंतगुणे जीव एक एक निगोद में (साधारण वनस्पतिकाय के शरीर में ) हैं । इनमें से प्रत्येक जीव के प्रसंख्य आत्म- प्रदेश पर अनंत कर्म स्कंध हैं । इन स्कंधों में से प्रत्येक में अनंत श्रणु हैं। इन प्ररपुत्रों में भी प्रत्येक के अनंत भाव हैं (भावसार्वकालिक श्रवस्थाएं ) इस प्रकार सभी जीवों-प्रजीवों के अनन्त भाव हैं । सर्वज्ञ श्री महावीर प्रभु यह सब प्रत्यक्ष देखते और जानते हैं । ऐसे सूक्ष्म कर्म के विलक्षण स्वरूप भौर शुद्ध श्ररूपी आत्मा का स्वरूप तथा सूक्ष्म कर्म से श्रावृत श्ररूपी जीव का विचित्र मलिन स्वरूप जैसा केवलज्ञानियों ने देखा वैसा जिसके चित्त में जच जाय वह सचमुच इन केवलज्ञानी जिनेन्द्र देव की प्राज्ञासेवा में सच्चा रसिक बन सकता है । कवि का कथन उचित ही है : प्रभु सभी जीवों तथा दृष्टि सम्मुख हथेली में । 'केवली - निरखित सूक्ष्म रूपी, ते जेहने चित्त वसियो रे, जिन उत्तम पद पद्मनी सेवा, करवामां घणू रसियो रे' । श्री महावीर प्रभु श्रपापा नगरी के महासेन वन में पधारे। देवतानों ने रजत, स्वर्ण और रत्नमय तीन गढ़युक्त समवसरण की रचना की । देव, मानव एवं तिर्यंच आये । इन्द्र प्रभु से देशना देने के लिए प्रार्थना करते हैं । "सुरपति श्राया वंदनकाज, भगते भरारणा रे हो; करे जिन पूजना रे | For Private and Personal Use Only तू पार उतार, जिनजी तू भवजल तार, प्रभुजी सरस सुधा-शी रे हो, देई श्रम देशना रे..........
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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