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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११३ - इष्ट विषयसंयोग बढ़ने पर भी सुख नहीं बढता, उल्टा दुःख का अनुभव होता है, अतः विषयसंयोग और सुख की व्याप्ति कहां रही ? इसके विपरीत, संयोगों से मुक्त मुनि यहां भी महान् सुख का अनुभव करता है । तो सर्व कर्म- संयोग - नष्ट होने पर अनन्त सुख का योग क्यों न बने ? (१३) सुख ज्ञान की भांति आत्म-स्वभाव है, अतः ज्ञानावरण का क्षय होने पर अनन्त ज्ञान प्रगट होता है । इसी तरह वेदनीय कर्म का क्षय होने पर - अनन्त सुख प्रकट हो सकता है । वह सुख शातादि की भांति नया उत्पन्न नहीं किन्तु प्रकटीकृत श्रात्म-स्वभावरूप है, अतः नित्य है । 'शरीर' 'वा वसन्तं......' वेद-पंक्ति में प्रियाप्रिय का स्पर्श न करने का कहा वह निषेध पुण्य-पापाधीन सुख-दुःख के सम्बन्ध में है । अर्थात् जैसे - सुख - दुःख मोक्ष में नहीं होते हैं; किन्तु यह निषेध नित्य सहज सुख के सम्बन्ध में नहीं । 'जरामयं वा श्रग्निहोत्र' का हउसमें 'वा' शब्द सूचित करता है कि • स्वर्गार्थी वैसा करे अथवा मोक्षार्थी वैसा न करे। सभी के लिए विधान होता तो 'वा' नहीं कहते । सारांश, मोक्ष है, और वह अनन्त ज्ञानमय, अनन्त सुखमय है । मुक्तात्मा • सदा के लिए ऊपर लोकान्त में स्थिर होती हैं । प्रभु के इस प्रकार समझाने से प्रभास ब्राह्मण शंका रहित बने, और - अपने ३०० विद्यार्थियों के साथ दीक्षा लेकर प्रभु के शिष्य बने । ग्यारहों ही दीक्षित विप्र मुनि फिर वही भगवान को वंदना कर विनय पूर्वक भयव ! किं तत्तं ? - 'भगवन ! तत्त्व क्या है ?' ऐसा प्रश्न तीन बार पूछते हैं, और सुरासुरेन्द्र पूजित जगद्गुरू श्री महावीर परमात्मा ने एक एक बार के प्रश्न के उत्तर में क्रमशः 'उप्पन्ने इ वा' 'विगमे इ वा' 'धुवे इ वा' 'जगत उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, ध्रुव रहता है' ऐसे उत्तर दिये । इन पर चिंतन करने में (i) प्रभु के श्रीमुख से उच्चारित ये उत्तर (ii) अपने पूर्वभव में उपा'जित गरधर नाम कर्म के पुण्य का उदय, (iii) श्रौत्पातिकी श्रादि बुद्धि, इत्यादि For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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