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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ से श्रागत आत्मा है । यह द्रव्य से नित्य और पर्याय से अनित्य चेतन श्रात्मा है । (२) एक सर्वंगत निष्क्रिय श्रात्मा नहीं हो सकती, क्योंकि (i) रागद्वेष विषयकषायाध्यवसाय - शुभाशुभ भावना - नारकत्वादि कार्य भेद से भिन्न श्रात्माएं हैं; (ii) शरीर में ही वे गुरण दृष्टिगोचर होने से शरीरमात्र व्यापी है, (iii) और वह भोक्ता व गति - संचरणकर्ता होने से सक्रिय आत्मा सिद्ध होती है । (३) प्र०- (प्र) श्रात्मा यदि विज्ञानमय है, तो विज्ञान उत्पत्तिशीलता से अनित्य है जिससे श्रात्मा भी प्रनित्य रही, फिर परलोक किसका ? (प्रा) यदि विज्ञान आत्मा से भिन्न हो तो श्रात्मा नित्य रह सकती है, परन्तु इसमें तो विज्ञान से भिन्न शुद्ध श्रात्मा का शुद्ध गगनवत् अथवा प्रज्ञान काष्ठवत् परलोक कैसा ? नित्य में यदि कर्मकर्तृत्व- भोक्तृत्व हो, तो सदा कर्तृत्वादि चलते ही रहें ! परन्तु ऐसा तो है नहीं । इसलिए श्रात्मा श्रनित्य है । ऐसे श्रनित्य में परलोक कैसे घटित हो ? उ०- विज्ञान में उत्पत्तिशीलता से नित्यता भी सिद्ध कैसे न होगी ? श्राश्चर्य होगा उत्पत्तिमान और नित्य ? हां, घड़े में भी अकेली प्रनित्यता नहीं है, परन्तु नित्यता भी है, क्योंकि घड़ा क्या है ? अकेला प्रकृतिरूप नहीं, परन्तु रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, एकत्व, तूम्बाकार प्राकृति, जलाहरणादि शक्ति आदि का घन है। पूर्व के मिट्टी के पिंड में भी यह रूपादि था, मात्र प्राकृति और शक्ति नहीं थी । इसका अर्थ यह कि घड़ा रूपादि रूप से नवनिर्मित नहीं परन्तु ध्रुव है, श्रौर नवीन प्रकृति शक्ति रूप में उत्पन्न है । अब मिट्टी का पिंड अपनी प्राकृतिशक्ति के रूप में नष्ट है । यही घड़ा भी श्याम श्रादि पूर्व पर्यायरूप से नष्ट भी होता है । इस प्रकार घड़ा ध्रुव और उत्पन्न - विनष्ट अर्थात् अध्रुव, यानी नित्यानित्य सिद्ध होता है । इसी प्रकार सभी द्रव्य और आत्मा भी नित्यानित्य सिद्ध होते हैं । इसमें श्रात्मा घट के पश्चात् पट देखती है, वही घटविज्ञानरूप पर्याय से नष्ट, पटविज्ञानरूप पर्याय से उत्पन्न और जीवत्व रूप से ध्रुव होती है । इस तरह मनुष्य मर कर देवता हुआ वहीं मनुष्यत्व रूप से नष्ट, देवत्व रूप से नवोत्पन्न र जीवत्व रूप से तदवस्थ है । इसलिए परलोक घटित हो सकता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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