SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विषय पृ० सं० विद्यामंत्र : भूताविष्टः देव के श्राने न श्राने के काररण । गणधर - ८ ( श्रकंपित ) नारक है क्या ? गरणघर-६ [ अचल भ्राता ] क्या पुण्य पाप है ? ६३. - इन्द्रिय- प्रत्यक्ष वस्तुतः प्रत्यक्ष नहीं ६३ उत्कृष्ट पाप का फल कहां ? ६४ (घ ) ६२ पर प्रभाव अकेले पुण्य के प्रति ह्रास से दुःखोत्कर्षं न बने - निश्चय से मिश्रयोग नहीं होता:, संक्रम में मिश्रित योग नहीं : पुण्य की ४६ प्रकृतियां ६५ १. अकेला पुण्य, २. अकेला पाप, ३. मिश्र, ४. स्वतन्त्र उभय. ५. एक भी नहीं मात्र स्वभाव कारण । -१.२,३,५, ये चार विकल्प गलत ६५, काररणानुमान - कार्यानुमान | - पुण्य पाप श्ररूपी क्यों नहीं ? कारण के समानासमान स्वपर पर्याय ६ मूर्त ब्राह्मी का अमूर्त ज्ञान ६८ ह εξ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय गणधर १० ( मेतार्य) परलोक है क्या ? १०२ परलोक की युक्तिया, घड़े में नित्यानित्यता : जो उत्पत्तिमान हो वह नित्य नहीं होता, उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य | पृ० सं० १०३ १०३ गरणधर ११ (प्रभास) मोक्ष १०५ दीपक के पीछे अंधकारः पुद्गलप्रयोग से स्वर्ण मिट्टी का वियोगः नारक तिर्यंचादि ये जीब के पर्यायमात्र १०५ धर्म, - १ जीव कर्म से सर्जित नहीं । सहभू, २ - उपाधि-प्रयोज्य । अनादि भी राग द्वेष का नाश विकार, १ - निवर्त्य. २ - अनिवत्यं 'अशरोरं वा वसंत' का अर्थ, मोक्ष में ज्ञान की सत्ता ज्ञान सर्व विषयक क्यों ? मोक्ष में सुख कैसे ? विषय सुख - रति अरति का प्रतिकार मात्र १०८ For Private and Personal Use Only १०७ ११० १११ संयोग तक सुख क्यों नहीं ? संसारसुख सांयोगिक-सापेक्षविपाककटु १११ ११ को त्रिपदी और गणधर - पद ११२
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy