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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कि सुख दुःख का एक साथ अनुभव नहीं, इससे स्वतन्त्र अनुभव रूप कार्य के लिए कारणभूत भिन्न भिन्न पुण्य और पाप की आवश्यकता रहती है । (५) पांचवे विकल्प में वायु तिरछी बहे, अग्नि ऊंची ही जाय, कांटे वक्र-टेढ़े तिरछे हों यह जैसा उनका स्वभाव है, वैसे ही पुण्य पाप के बिना ही सुख दुःख भववैचित्र्य के स्वभाव से ही होते हैं । १,-२,-३,-तथा ५-ये चारों विकल्प गलतः इनमें चौथा विकल्प ही युक्ति-संगत है, शेष युक्ति-विरुद्ध है । यह इस प्रकार: यदि स्वभाव से ही जगत् वैचित्र्य होना कहते हो, तो स्वभाव का अर्थ क्या ? (१) वस्तु ? (२) निहें तुकता ? अथवा (३) वस्तुधर्म ?(इस सम्बन्ध में पूर्व में दूसरे गणधर में कहा गया है तदनुसार ।) सारांश, कारणभूत मूर्त वस्तुधर्म पुण्य-पाप मानने चाहिये। दो प्रकार के अनुमान से स्वतन्त्र पुण्य व पाप की सिद्धिः कारणानुमानः 'दानादि क्रिया और हिसादि क्रिया रूप विचित्र कारणों के कार्य विचित्र होने ही चाहिये, जैसे गेहूँ और डांग के बीज के कार्य । तथा कार्यानुमानः 'जनक माता पिता सदृश होने पर भी दो पुत्रों में सुरूपता आदि विचित्र कार्य के पीछे विचित्र कारण होने ही चाहिये, इन दो प्रकार के अनुमानों से पुण्य-पाप सिद्ध होते हैं । (३) प्रधान कारण भी कार्य के अनुरूप होता है, सोने के कलश का कारण सोना ही और तांबे के कलश का कारण तांबा ही होता है । इसी तरह सुख का कारण पुण्य कर्म और दुःख का कारण पाप कर्म,-ऐसे दो विलक्षण कार्यों के कारण भी विलक्षण मानने ही पड़े। पुण्य-पाप अरूपी क्यों नहीं: प्र०- ऐसे तो सुख दुःख प्रात्मपरिणाम स्वरूप होने से अरूपी हैं तब इनके कारणभूत पुण्य-पाप अरूपी ठहरेंगे ? For Private and Personal Use Only
SR No.020336
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuvijay
PublisherJain Sahitya Mandal Prakashan
Publication Year
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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