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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4% A A सत्यता में भारी संदेह हो जाता है । बाबू पूर्णचंदजी नाहार जैसे पुरातत्वान्वेषी इससे सहमत नहीं, (देखें प्रबंधावली पृ० १३३) आचार्य श्रीजिनदत्तसूरिजीने औसवाल समाज पर सर्वप्रथम जो उपकार किया उसे कौन स्वाभिमानी ओसवाल जैन भूल सकता है। आचार्य महाराज आगामी संतान के लिये अपनी महान् साहित्यिक सम्पत्ति छोड़ गये हैं, जो इस प्रकार है । गणधरसाई शतक-आपके करकमलों में विराजित है, संदेहदोलावली-योगिनीस्तोत्र-गणधरसप्तति-उत्सूत्रपदोद्धाटन कुलक-सर्वाधिष्ठाई स्तोत्र चैत्यवंदन कुलक-अवस्थाकुलक-गुरुपारतंत्र्य-विघ्नविनाशी स्तोत्र-विंशीका-श्रुतस्तब-अध्यात्म गीतानि-वीर स्तुति-अजितशांति | स्तोत्र-पार्श्वनाथ मंत्रगर्भित स्तोत्र-चक्रेश्वरी स्तोत्र-उपदेश धर्म रसायन-कालस्वरूप चर्चरी-पद स्थापना विधि-आदि आदि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंशादि भाषा में अनेक ग्रन्थरत्न निर्माण कर भारतीय साहित्य में स्तुत्य वृद्धि की है। अपभ्रंश-जो किसी समय भारत की राजभाषा थी इस-भाषा पर आपका बहूत प्रभुत्व था । विद्वान् लोग आपकी साहित्यक सम्पत्ति पर मुग्ध हैं, आपकी वर्णन व ग्रन्थरचना शैली उच्च कोटि की विद्वत्ता परिचायक थी। संवत् ११६२ में वीरचंद्रसूरि शिष्य देवसूरिने प्राकृत गाथा में जीवानुशासन स्वोपज्ञात्मक निर्माण किया और श्री जिनदत्तसूरिजीने संशोधन कर निर्दोष किया, इसमें आचार्यवयं का " सप्तगृह-निवासी " विशेषण आकर्षक और सर्वथा सार्थक है, इसीसे आपके विस्तृत परिवार का पता लगता है। (पी० प, २२) आपके बहुत से ग्रन्थ अप्रकाशित दशा में पडे है, यदि समय अनुकूल रहा तो आपके समस्त ग्रन्थों का समीक्षात्मक परिचय पाठकों के करकमलों में समर्पित किया जायगा। ___उपरोक्त विवचन में भगवान् महावीर से लगा कर आचार्य श्रीजिनदत्तरिजी तक के प्रसिद्ध २ महापुरुषों का संक्षिप्त ऐतिहसिक परिचय आ जाता है, जिससे विदित होता है कि जैन धर्म की रक्षा में उन आचार्योंने महान् सहायता की, लोकोपकारार्थ अनेक विषयक साहित्य %A5 For Private and Personal Use Only
SR No.020335
Book TitleGandhar Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1944
Total Pages195
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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