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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandie COCCASCORRORESAR चित्र बने हुए है और भी कई काष्ठ पट्टिकाएं प्राप्त है जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। ब्रम्ह देशमें आज भी इसका विशेष प्रचार पाया जाता है। बोडलियन पुस्तक संग्रह में बहुसंख्यक ग्रन्थ काष्ठ पर सुंदर लिखित व चित्रित है। मेरे संग्रह में भी कुछ काष्ठचित्रितावस्था में है, बहूत जैन मंदिरो में भी काष्ठ पर सुंदर शिल्प के दृश्य देखने को मिलते है, इन सभी उदाहरणों से निष्कर्ष यही निकलता है कि पुरातन भारतीय लेखन एवं शिल्पादि कार्य में काष्ठका प्रयोग भी बडी सफलता के साथ करते थे, पर जैन ग्रन्थ काष्ठ पर खुदवाने का यह प्रथम ही उल्लेख हमारे दृष्टिगोचर हुआ। अमरावती (बरार) में १ खरतर गच्छीय उपाश्रय में वि० सं० १९२१ का १ काष्ठोत्कीर्ण लेख मिला है, चित्र हमारे संग्रह में है । वि० देखें "भारत में लेखन एवं शिल्पकला में काष्ठका उपयोग" नामक निबंध । श्री जिनवल्लभसूरिः-१२ वीं सदी के विद्वान् क्रियापात्र जैनाचार्यों में आपका स्थान अत्युच्च है। उस समय आपही ने जैन धर्म को खतरे से बचाया । आप सरीके पक्के सत्याग्रही उस समय न होते तो आज भी चैत्यवास उसी रूप में दिखता जैसा पूर्व था। आपने उनके सामने भयंकर आंदोलन चलाया था, और सत्य के ही बल पर आपकी विजय हुई, एतद्विषयक आपने एकाधिक खंडनात्मक ग्रन्थ निर्मित किये। आप आसिका दुर्ग निवासी कर्चपुरीय जिनेश्वरीचार्य के शिक्षणालय में पढ़ते थे । जनक नहीं थे, जननी अकिंचन थीं, ५०० दम्म दे कर इन्हें दीक्षित किये । आपकी मेधा अत्यन्त सूक्ष्म थीं । एकदा आपने पुस्तक में पढ़ा मुनियों को ४२ दोष रहित आहार करना ४८. आचार्य सागरानंदसूरिजीने ये जिनेश्वराचार्य और वसति मार्ग प्रकाशक जिनेश्वरसूरि को एक ही मानकर यह प्रश्न किया है “सं० ११३०३४ में अभयदेवसूरिजी महाराज स्वर्गवासी हुए...(और)...११६८ में जिनवालभ कूर्चपुरीय जिनेश्वर को अपने गुरु बताते हैं यह विचारणीय है" जिनेश्वरसरि चल्यवासी थे जिनके मठ में पूर्व इन्होंने अध्ययन किया था, इस अवस्था के गुरु को अपेक्षा से उनका लिखा है । बर्द्धमान के पाट पर तो श्री जिनेश्वरसूरिजी थे ही, बात बिल्कुल साफ है, न जाने सागरजी महाराज को क्यों कर शंका हो गई। ALGAOSAMACASSESARK For Private and Personal Use Only
SR No.020335
Book TitleGandhar Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1944
Total Pages195
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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