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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यस्वरूपनिरूपण जो आचाई स्वच्छंदना का आचरण करता हो, अपनी पनि से विरुद्ध कार्य करते हुए अाभ में प्रवृत्ति करता हो, तथा पीठ फलक आदि में आसक्त हो, अपकाय की हिंसा तक कर जाए। वह अपने मूल तथा उत्तर गुणों में दोष लगादे और समाचारी की विराधना कर डाले फिर भी इन दोषों की आलोचना न करता हो और नित्य विकथा में ही लगा रहे वह आचार्य उन्मार्गगामी है ।। छत्तीमगुणसमन्नागएण, तेण वि अवस्स कायव्वा । परमविश्वा विसोही, सुटठुवि ववहारकुसलेण ॥१२॥ छत्तीस गुणों से युक्त आचार्य को भी दूसरे की साक्षी से अपने दोषों की आलोचना करके शुद्धि करनी चाहिये और ____ "भट्ठ" 'सर्वत्र ल-ब-रामवन्द्रे' ।।८।२६।। इति सूत्रण 'ध्र' इत्यस्य रकारस्य लुक, 'समासे वा' ।८२.६७।। इति सूत्रेण भस्य द्वत्वम्, 'द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः' ।।८ २१६०॥ इति सूत्रेण चतुर्थस्योपरि तृतीयः, अस्य फलस्वरूपेण पूर्वस्य भकारस्य बकारः ।। 'स्यानुट्रष्टासंदष्टे' । २/३४|| इति सूत्रेण प्रस्य ठः, अनादा शेषादेशयोद्वित्वम्'। सारा| इति सूत्रेण द्वित्वम् , 'द्वितीयतुर्यचोरुपरि पूर्व' ।।८२२६०।। इति सत्रेण पूर्वस्य ठकारस्य टकारः ।। "विराहअं" ख-घ-थ-ध-भाम' ।।१।१८७॥ इति सूत्रेण घस्य हः । 'निच्च" त्याचैत्ये' ।।२।१३|| इति सूत्रेण त्यस्य चः. 'अनादी शेषादेशयाद्धित्वस' इति त्रण द्वित्वम् ।। पनिशद्गुणसभन्वागतेन, तेनापि अवश्यं कर्तव्या। परसातिका विशाधिः, सु ल्वपि व्यवहारकुशजेन ।। १२ । For Private And Personal Use Only
SR No.020333
Book TitleGacchayar Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokmuni
PublisherRamjidas Kishorchand Jain
Publication Year1951
Total Pages64
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size3 MB
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