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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन ग्रन्थरत्नाकरे. ताश्च संवेगवैराग्ययमप्रशमसिद्वये । आलानिता मनः स्तम्भे मुनिभिर्मोक्तुमिच्छुभिः ॥ ६ ॥ भाषार्थ - ते भावना कर्मनितैं छूटने के अर्थि जे मुनि, तिननै संवेग कहिये - धर्मसूं अनुराग अर संसारसूं वैराग्य, अर यम कहिये - महात्रतादिरूप चरित्र अर प्रशम कहिये - कषायनिका अभावरूप शान्तभाव इनिकी सिद्धिकेअर्थि अपने चित्तरूपी स्तम्भकै विषै दृढ ठहराई. भावार्थ — इनि विषै चित्त निरन्तर लग्या रहै, अन्यतरफ न जाय ऐसें आलानित करी || - आगे ते भावना कैसी हैं सो कहै हैं,अनित्याद्याः प्रशस्यन्ते द्वादशैता मुमुक्षभिः । या मुक्तिसौधसोपानराजयोऽत्यन्तवन्धुराः ॥ ७॥ भाषार्थ – ते भावना अनित्यकूं आदि देकर द्वादश हैं तिनिकं मोक्षके इच्छुक मुनि हैं ते प्रशंसारूपकार कही हैं कैसी हैं ते! मुक्ति रूपीमहलके चढनेकी अत्यन्त बन्धुरा मर्यादरूप रची हुई पैड़निकी पंक्ति सारिखी है | --- आगें इनि द्वादश भावनाका न्यारा न्यारा व्याख्यान करें हैं, तहाँ प्रथम ही अनित्य भावनाका व्याख्यान करे हैं, अथ अनित्यानुप्रेक्षा लिख्यते । हृषीकार्थसमुप्तने प्रतिक्षणविनश्वरे । सुखे कृत्वा रतिं मूढ ! विनष्टं भुवनत्रयम् ॥ ८ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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