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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री परमात्मने नमः। जैनग्रन्थरत्नाकरस्थ रत्न ८ वा. श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचित शनार्णवान्तर्गता द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. दाहा श्रीयुत वीर जिनेन्द्रकू बंदी मनवचकाय । भवपद्धति भ्रममेटिक, करै मोक्ष सुखदाय । १॥ आगें या प्राणीकू ध्यानकै ( योग्यसाधनकै ) सन्मुख होने संसारदेह भागते वैराग्य उपजावना है तहाँ वैराग्यका कारण बारह भावना (द्वादशानुप्रेक्षा) हैं तिनिका व्याख्यान करिसी तिनिके भावनेकी प्रथम ही प्रेरणा करै हैं शार्दूलविक्रीडित छंद । सङ्गैः किं न विषाद्यते वपुरिदं किं छिद्यते नामयैः मृत्युः किं न विज़म्भते प्रतिदिन द्रुह्यन्ति किं नापदः । श्वभ्राः किं न भयानकाः स्वपनवद्भोगा न किं वश्चका येन स्वार्थमपास्य किन्नरपुरमख्ये भवे ते स्पृहा ॥१॥ __ भाषार्थ-हे आत्मन् ! या संसारविपै सग कहिरे-पन धान्य स्त्री कुटंब आदिका मिलापरूप परिग्रह हैं ते कहा ताकू For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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