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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन ग्रन्थ रत्नाकरे. याका संक्षेप यह जो या लोकमें सर्व द्रव्य अपनी २ सत्ताकूं लिये न्यारे न्यारे हैं, कोऊ काहूरूप होय नाहीं. अर परस्पर निमित्त नैमित्तिक भावकरि किछू कार्य होय है ताके भ्रमकर यह प्राणी अहंकार ममकार परविषै करै हैं तहां जब अपना स्वरूप अन्य जानै तत्र अहंकार ममकार अपना आपमें होय तब परका उपद्रव आपके न आवै. यह अन्यत्वभावना है ॥ ५ ॥ दोहा. । अपने अपने सत्त्वकूं, सर्व वस्तु विलसाय । ऐसे चितवै जीव तब, परतें ममत न थाय ॥ ५ ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा ॥ ५ ॥ अथ अशुचित्वानुप्रेक्षा लिख्यते । आगें अशुचि भावनाका व्याख्यान हैं तहां शरीरका अशुचिपणा दिखावे हैं, निसर्गगलिनं निन्द्यमनेका शुचिसंभृतम् । शुक्रादिवीजसंभूतं घृणास्पदमिदं वपुः ॥ १ ॥ भाषार्थ या संसार में यह प्राणीनिका शरीर है सो प्रथम तौ स्वभावहीकरि गलनेरूप है. बहुरि निंदवे योग्य है. बहुरि अनेक अशुचि धातु उपधातूनिकरि भस्या है. बहुरि शुक्र रुधिरबीजकरि उपज्या है ऐसा है ता गिलानिका स्थानक है || For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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