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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दीपमालिका व्या० ॥ ३१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | ऐसा राजा बोला हे प्रभो मैं दरिद्री एकबुभुक्षितने यह राज्य पाया | वह सर्व आपका प्रसाद है | अन्यथा मेरे - को राज्य कहां था । इसलिये यह राज्य आपलेओ || जिससे मैं अनृणीहोऊं ॥ ऐसा राजाका वचनसुनके | आचार्य बोले | कि हेनिर्मलबुद्धे राजेन्द्र हमारे राज्यकी वांछा नहीं है । हम तो शरीर में भी निस्पृह हैं | राज्यसे हमारे क्या प्रयोजन है | परन्तु यहराज्य तुमने पुण्यसेपाया है । इससे हेनराधीश सुकृतकरनेमें उद्यम || करना ॥ निर्मलसम्यक्त्वपालना श्रीतीर्थंकरकी निरंतरपूजा करनी || और सुसाधु निग्रन्थ पांचसमिति तीनगुप्ती गुप्तसत्तरहप्रकारका संयम पालनेवाला बयालीसदोषरहित आहारलेनेवाले भव्यजीवोंका उपकार करनेवाले ऐसे मुनि राजोंकी सेवा करनी ॥ दानादि चार प्रकारके धर्म आराधनेमें उद्यम करो | यह धर्म विशेषकरके पर्वमें आराधना ॥ जो नित्य परिपूर्णनहीं आराधाजावे ता ॥ मनुष्यभवका सार धर्मसेवनही है | ऐसा गुरूका वचन सुनके राजा बोला ॥ कि हे प्रभो जैनशासनमे संवत्सरी वगैरहः ॥ समस्त पर्व प्रसिद्ध है । उन पत्रका | महिमा श्रावक बहुत माने हैं | परन्तु दिवालीपर्व लौकिक और लोकोत्तर मानते हैं ॥ सो कहां प्रवर्तमान | हुआ | इस पर्व में प्रधानवस्त्रभूपणवगैरहः मनुष्यादि पहरते हैं वृषभादिपशुओं को शृङ्गारते हैं ॥ घर वगैरहः का | संस्कार करते हैं । उसका क्या कारण है । ऐसा राजाने पूछा ॥ बाद गुरू बोले । हे राजन् इस पर्वका खरूप तैं एकाग्रचित्तहोके सुन ॥ श्रीमहावीरखामी प्राणतनाम दशमा देवलोकका पुष्पोत्तरनामकविमानसे व्यव For Private and Personal Use Only आर्यसुहस्तिसूरि संप्रतिरा जाको क० वीरचरित्र ॥ ३१ ॥
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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