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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथापि इसवक्त दीक्षालेनानहि अभीतक तुमारे भोगकर्महे वो भोंगवके अवशर में दीक्षालेना क्योंकि भोग्यकर्म तीर्थकरों को भी अवश्य भोगवना होताहे इसलीये संजम ग्रहणकरके त्यागकरना अच्छानहि जैसे उस भोजन से क्या प्रयोजनहे की जो खाके वमनकीया जावे. ऐसाबहुतमना करनेपर भी उसके वचन नहिमानताहुवा संजम ग्रहण कीया वो प्रत्येकबुद्धमुनि तीक्ष्ण व्रतपालताहुवा भूमंडल में विचरताहुवा अन्यदा बसंतपुर पत्तनजाके कोई देवकुल में काउसग्ग में रहा - इधर से उसनगर में देवदत्तनामका बड़ा सेठथा उसके धनवतीनामकी स्त्रीथी वाद वह बंधुमतीका जीव देवलोकसे व्यवके अद्भुतरूपवती श्रीमतीनामकी उन्होके पुत्री हुई वाधायोंकरके पाल्यमान ऐसी क्रमसे धूलीकी क्रीड़ायोग्यवय प्राप्त भई एकदा प्रस्ताव में उसदेवकुलमें नगरकी कन्यायों सहित श्रीमती कन्या | भी पतिवरणक्रीड़ा करने को आई तब सब कन्या भर्तारको वरो ऐसा बोलीं तब कोई कन्याने किसको वरा २ ऐसे सब कन्यायोने अपनी २ इच्छासे वर अंगीकार किया तब श्रीमती बोली हे सखियो मैंने तो यह पूज्य वरा है । उस वक्त में साधु वृतं साधुवृतं ऐसी देवताने वाणी करी और गर्जारवकरतीभई वाही देवी वहां रत्नवरसाया अर्थात दीक्षा लेने के | समय जिसदेवीने मना कियाथा उसीदेवीने यहां रत्नोंका वरसात किया तब श्रीमती गाजनेसे डरी भई उसमुनिके पगो में पड़ी । वह साधु क्षणमात्ररहके विचारताभया यहां रहते मेरेको अनुकूल उपसर्गभया इसकारण से यहां नहीं रहना ऐसा विचाकर मुनि अन्यत्र गया तब अस्वामिक धनका मालिक राजा होवे है ऐसा निश्चयक For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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