SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C चातुमासिक नम्. RECERESCREECCADRECAUSAKASE निर्वद्य भूमीपर जाके जितने शाक परठाने लगा उतने तो उस साकमेंसे एक विन्दु उछलके गिरा उसके 8व्याख्यागन्धसे बहुत कीडिये इकढि भई और गन्ध लेतेही मर गई तब ऐसा बहुत कीड़ियोंका मरण देखके पापसे डरनेवाले साधुने जीवदया विचारता हुआ सर्व जीवोंके साथ क्षामणा करके वहां रहा हुआ आपहीने वह कड़वे तुम्बेका शाक खाया, परन्तु और जीवोंकी हिंसाके भयसे परठाया नहीं बाद शीघ्र मरके सर्वार्थसिद्ध में गया, ट्रानिष्पाप आचरणपर धर्मरुचिका दृष्टान्त कहा ॥६॥ | अब पाप त्यागकरके वस्तुतत्वका ज्ञान, उसमें इलापुत्रका दृष्टान्त कहते हैं । जैसे “इलानगरमें धनदत्तसेठ है उसके इलादेवीका सेवन करनेसे इलापुत्र नामका पुत्र हुआ बह इलापुत्र एकदिन वहां आएहुए विदेशी नटवोंका नाटक देखता हुआ अतिसुन्दररूपवाली नटपुत्रीको देखके पूर्वभवके स्नेहसे उसमें अनुरक्त हुआ, बाद यह आके पितासे बोला अहो पिताजी मेरे को नटवेकी पुत्री परनावो नहितर में मरनेका शरनाकरूंगा परन्तु और कन्याको पानिग्रहण सर्वथा नहीं करूंगा। तब पिता उसका बहुत आग्रह जानके कोई प्रकारसे मना ॥ ७॥ करनेको नही समर्थ हुआ तब वो नटवेके पास जाके पुत्री मांगी। नटवेनें कहा जो हमारी कला सीखके बहुत धन कमाके हमारी जातिको पोषे तब हमारी पुत्री परणे सेठने नटका वचन सुनके इलापुत्रसे कहा तब इलापुत्र नटका वचन अङ्गीकार करके हठसे घरसे निकलके नटों में मिला ।वाद कितनेक कालमें नटोंकी सब कलामें | For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy