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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीवा० अर्थः-जिनवचन चक्षुम्सेरहित लोग देव और कुदेवको नहीं देखते हैं ॥ सुगुरु कुगुरुको नहीं जानते हैं धर्म पौषव्याख्या० और अधर्मको नहीं जानते हैं ॥ गुण और अगुणको नहीं जानते हैं ॥ कृत्य अकृत्य हित अहितको नहीं जानते ४ दशमीका हैं अर्थात् जिनवचनसे ही यह बोध होता है । वह सेठ कभी जिनवचन नहीं सुने है ॥ मिथ्यात्व रूप राहुसे ग्रसितचन्द्र जैसा ॥ जीव शरीरको एकमाने परन्तु वह सेठ राज्यमान्य था नगरसेठथा ॥ ऐसे कितना काल गया बाद अढ़ाई से (२५०) जहाज गणिम, धरिम, मेय, परिच्छेद्य यह चारप्रकारके क्रियानोंसे भरके रत्नद्वीप भेजा। बहा जाके सेठके पुरुषोंने वहमाल वेचके नये क्रियानोंसे जहाज भरके पीछे चले ॥ मध्यसमुद्र में जब आये है तब कर्मोदयसे तोफान हुआ ॥ उल्कापात और प्रचण्डपवनके वेगसे वह जहाज कालकूट द्वीपमें गए ॥ स्वस्था नमें नहीं आए ॥ और सेठके घरमें इग्यारह करोड़ धननिधानगतथा वहां सर्पविच्छ्र और कोयला होगया ॥ ५०० गाड़ा भरके मालका दिसावरसे आताथा वह भीलोने लूट लिया ॥ बाद सेठ निर्धन हो गया नगरसेठका पदगया ॥ महा दरिद्री होगया ॥ लोग जो सत्कार करते थे वहभी गया ॥ कहाहै ॥ धनमर्जय काकुत्स्थ ? धनमूलमिदं जगत् । अन्तरं नैव पश्यामि, निर्धनस्य शवस्य च ॥१॥ हे रामचन्द्र धन उपार्जन करो धनमूल यह जगत् है निर्धन और मरे हुएमें अंतर नहीं देखता हूं ॥१॥ BOOKSAROKAR For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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