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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AACANCRECRUARCORRECEM ज्ञानस्याराधने यत्नोऽध्ययनश्रवणादिभिः। भव्यैर्विधेयः सततं निर्वाणपदमिच्छुभिः ॥ १॥ अर्थः-भव्योको अध्ययन श्रवणादि करके ज्ञानके आराधनमें निरंतर यत्न करना निर्वाणपदकी इच्छा करनेवाले ऐसे ॥१॥ मनसेभी जो ज्ञानकी विराधनाकरे वह मनुष्य विवेकवर्जित शून्यमन होवे ॥ और जो दुर्बुद्धि वचनसेज्ञानकी विराधना करे वह जन्मान्तरमें मुखरोगी मूकपना निःसंशय पावे ॥ जो कायासे यत्नवर्जित आशातना करे वह जन्मान्तरमें दुष्टकोढ वगैरहः रोगोंसे पीडितहोवे ॥ मनवचनकायाके योगसे जो मूर्ख ज्ञानकी विराधना करेहै । करावेहै । उन्होंके पुत्रः कलत्रमित्रधनधान्यादिकका विनाशहोवेहै ॥ आधिव्याधिका संभव होवेहै ॥ इससे अहो-2 है भव्यो ज्ञानकी आराधनाकरना विराधना करना नहीं ॥ इत्यादिदेशना सुनके सिंहदाससेठ आचार्यको वंदना करके बोला ॥ हे भगवन् किस कर्मसे मेरी पुत्रीके शरीरमें जन्मसे रोगभया ॥ गुरु बोले हेमहाभाग कर्मोंसे क्यानहीं संभवेहै 8 अपितु सर्वसंभवहै । इसका पूर्वभव सुनो ॥ धातकीखंडके भरतक्षेत्रमें खेटकनामका नगरथा वहां जिनदेवनामकासेठ और उसके सुंदरीनामकी स्त्री थी। उन्होंके पांच पुत्र हुए आशवाल १ तेजपाल २ गुणपाल ३ धर्मपाल है ४ धनसार ५ चार पुत्रीभई लीलावती १ शिलावती २ रंगावती ३ मंगावती ४ एकदा जिनदेवसेठने पांचोंपुत्रोंको ४ पंडितकेसमीपमें विद्याकला ग्रहणके वास्ते रक्खा ॥ ३लड़का चापल्यकरें कीड़ाकरें ॥ अध्ययन करें नहीं पंडित BREARCRASASAKAC%CE% For Private and Personal Use Only
SR No.020325
Book TitleDwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1926
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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