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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२४) ता देव ! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पासजिणचंद--हे पार्श्वप्रभो ! भवोभव में मुझे वही सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) प्रदान करिये ॥ ५ ॥ १८. जय वीयरायसुत्तं । जय वीअराय ! जगगुरु--हे वीतराग ! हे जगतगुरो ! आपकी जय जय हो. होउ ममं तुहप्पभावओ भयवं--आपके प्रभाव से हे भगवन् ! मुझको होओ भवनिवेओ मरगाणुसारिया इट्ठफलसिद्धि । --संसार से निर्वेद (वैराग्य ), धर्ममार्ग का अनुसरण और इष्टफल (वांछित लाभ) की सिद्धि ॥१॥ लोगविरुद्धच्चाओ-लोक में निन्दाजनक व्यवहार का त्याग, गुरुजणपूआ परत्थकरणं च--पूज्य बड़ीलों की सेवा, बहुमान और परोपकार करने की बुद्धि, सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा--सद्गुरु का समागम तथा उनके शुभ वचनों का सेवन. आभवमखंडा--ये सभी बातें अखंडित रूप से जीवन पर्यन्त मुझ को प्राप्त हो ॥ २ ॥ वारिज्जइ जइ वि नियाणबंधणं वोयराय ! तुह समए हे वीतराग ! यद्यपि आपके सिद्धान्त में नियाणा बांधने का निषेध किया है For Private And Personal Use Only
SR No.020303
Book TitleDevasia Raia Padikkamana Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantvijay
PublisherAkhil Bharatiya Rajendra Jain Navyuvak Parishad
Publication Year1964
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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