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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६३) द्वेषी हैं । त्रिस्तुतिक सिद्धान्त के प्रतिपादक अनेक प्रामाणिक - सूत्रग्रन्थ विद्यमान हैं- जिनके अवलोकन से इस सिद्धान्त की सत्य स्थिति का भलीभाँति पता लग सकता है । आचार्यदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने लोगों को वास्तविक मार्ग समझा कर त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का पुनः प्रचार किया है । नया मत तो वह है जो शास्त्रोक्त न हो और गतानुगतिक से चल पड़ा हो । प्रश्न -- प्रतिक्रमण में लघुशान्ति क्यों नहीं कहना ? | उत्तर - लघुशान्ति के कर्त्ता श्रीमानदेवसरि हैं, उन्होंने इसकी रचना शाकंभरीसंघ के कहने से मरकी ( महामारी ) रोग की निवृत्ति के लिये की है, इनके पहले लघुशान्ति नहीं थी । मानदेवसूरि के बाद लोग इसका मांगलिक के लिये पाठ किया करते थे । वृद्धवाद ऐसा है कि आज से पांचसौ वर्ष पहले उदयपुर ( मेवाड़ ) के उपाश्रय में एक यतिजी दर्शनार्थ आनेवाले श्रावक-श्राविका को मांगलिक के लिये लघुशान्ति सुनाया करते थे । उनको मांगलिक सुनाते एक बजे तक बैठक लगाना पडती थी, इससे घबरा कर यतिजीने अपनी हमेश की दिकत को मिटाने लिये प्रतिक्रमण में 'दुक्खक्कमक्खय' के कायोत्सर्ग में लघुशान्ति कहने का प्रस्ताव पास कराया । तब से प्रतिक्रमण में कहने की प्रथा चालु हुई, जो अब भी प्रचलित हैं । इस उल्लेख से यह तो साफ मालूम पड़ता है कि श्रीमानदेवसूरि के पहले और बाद में कई सौ वर्ष तक प्रतिक्रमण For Private And Personal Use Only
SR No.020303
Book TitleDevasia Raia Padikkamana Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantvijay
PublisherAkhil Bharatiya Rajendra Jain Navyuvak Parishad
Publication Year1964
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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