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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandit श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३७८॥ पगईइ मंदावि भवंति एगे, डहरावि अ जे सुअबुद्धोववेआ। आयारमंतो गुणसुट्टिअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भास कुजा ।। सूत्रम् ३॥ जे आवि नागंडहरंति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ। एवायरिअंपि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो ।। सूत्रम् ४ ।। आसीविसो वावि परं सुरुट्ठो, किं जीवनासाउपरं नु कुना? आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो।। सूत्रम् ॥ जो पावगंजलि अमवक्तमिजा, आसीविसं वावि हु कोवइजा। जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ।। सूत्रम् ६॥ सिआ ह से पावय नो डहिजा, आसीविसो वा कुविओन भने । सिआ विसं हालहलं न मारे, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए। सूत्रम् ७॥ जो पव्वयं सिरसा भिन्तुमिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिबोहइजा। जो वा दए सत्ति अग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ।। सूत्रम् । नवममध्ययन विनयसमाधिः प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ३-१० उदाहरणपूर्वकं दोषप्ररूपणम। ॥३७८।। सिआ हसीसेण गिरिपि भिंदे, सिआ हु सीहो कुविओन भक्खे। सिआन भिदिज वसत्तिअगं, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥सूत्रम् ९॥ आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो। तम्हा अणाबाहसुहाभिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिजा। सूत्रम् १०॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020178
Book TitleDashvaikalika Sutram
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherShripalnagar Jain S M P Trust
Publication Year2012
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size94 MB
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