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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६४५ देवदारु, कचूर, हल्दी, दारुहल्दी, सारिवा, कुटकी, लौंग, अगर, केशर, रेणुका, दालचीनी और जटामासी--इन सबको पहले हमामदस्तेमें कूट लो। फिर कुटे हुए चूर्णको सिलपर रख पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो। - पीपर-वृक्षकी लाख सवा सेर लाकर, पाँच सेर पानीमें डालकर औटाओ । जब चौथाई या सवा सेर पानी रह जाय, उतारकर छान लो। अब एक कलईदार कढ़ाही में तीन सेर तिलीका तेल, अढ़ाई सेर दहीका तोड़, सवा सेर लाखका छाना हुआ पानी और ऊपरकी लुगदी रखकर मन्दाग्निसे पकाओ । आठ-नौ घण्टे बाद जब पानी और दहीका तोड़ जलकर तेल-मात्र रह जाय, उतार लो और छानकर बोतलमें भर दो। . इस तेलकी नित्य मालिश करानेसे ज्वर, यक्ष्मा, रक्त-पित्त, उन्माद, पागलपन, मृगी, कलेजेकी जलन, सिरका दर्द और धातुके विकार नाश होकर शरीरकी कान्ति सुन्दर होती है । जीर्ण-ज्वर और यक्ष्मापर कितनी ही बार आजमायश की है । परीक्षित है। नोट-जब झाग उठने लगें तब घीको पका समझो और जब झाग उठकर बैठ जायँ, झागोंका नाम न रहे, तब समझो कि तेल पक गया । यह चन्दनादि तैल क्षय और जीर्णज्वरपर ख़ासकर फ़ायदेमन्द है। शरीर पुष्टि करनेवाला चन्दनादि तैल हमने "स्वास्थ्यरक्षा में लिखा है। लाक्षादि तैल । इस तैलकी मालिशसे जीर्ण-ज्वरी और क्षय-रोगीको बड़ा फायदा होता है। प्रत्येक ग्रन्थमें इसकी तारीफ़ लिखी है और परीक्षामें भी ऐसा ही साबित हुआ है। इसके बनानेकी विधि "चिकित्सा-चन्द्रोदय" दूसरे भागके पृष्ठ ३६४ में लिखी है । यद्यपि उस विधिसे बनाया तेल बहुत गुण करता है, पर उसके तैयार करनेमें समय For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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