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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा। ६०३ अगर कन्धों और पसलियोंमें दर्द हो, तो शतावर, क्षीर-काकोली, गन्धतृण, मुलहटी और घी- इन सबको पीस और गरम करके, इनका लेप दर्द-स्थानोंपर करना चाहिये । अथवा गूगल, देवदारु, सफेद चन्दन, नागकेशर और घी--इन सबको पीस और गरम करके सुहाता-सुहाता लेप दर्द-स्थानोंपर करना चाहिये। अगर खूनकी तय होती हों, तो महावरका स्वरस दो तोले और शहद ६ माशे- इनको मिलाकर पिलाना चाहिये। ___ नोट-पीपल, बेर और शीशम आदि वृक्षोंकी शाखाओंपर जो लाल-लाल पदार्थ लगा रहता है, उसे “लाख" कहते हैं। पीपलकी लाख उत्तम होती है। पीपरकी लाखको गरम जलमें पकाकर महावर बनाते हैं। (६) लिख आये हैं, कि क्षयरोगीके पथ्यापथ्यका खूब ख़याल रखना चाहिये । उसे अपथ्य आहार-विहारोंसे बचाना चाहिये । क्षयवालेको आग तापना, रातमें जागना, ओसमें बैठना, घोड़े आदिपर चढ़ना, गाना बजाना, जोरसे चिल्लाना, स्त्री-प्रसंग करना, पैदल चलना, कसरत करना, हुक्का-सिगरेट पीना, मल-मूत्र आदि वेगोंका रोकना, स्नान करना और कामोत्तेजक कामोंसे बचना चाहिये; क्योंकि इस रोगमें मैथुन करनेकी इच्छा बहुत प्रबल होती है। मैथुन करनेसे वीर्य क्षय होता है और वीर्य-क्षयसे क्षय-रोग होता है । जिस कामसे रोग पैदा हो, वही काम करना सदैव बुरा है। विशेषकर, वीर्यक्षयसे हुए यक्ष्मामें तो इस बातको न भूलनेकी बड़ी ही For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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