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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थावर विषोंकी सामान्य चिकित्सा । २६ (७) सातवें वेगमें-कन्धे टूट जाते हैं, पीठ और कमरमें बल नहीं रहता और श्वास रुक जाता है, यह अवस्था निराशाजनक है। अतः इस अवस्थामें वैद्यको कोई उपाय न करना चाहिये, पर बहुत बार ऐसे भी बच जाते हैं। 'जब तक साँसा तब तक आसा' इस कहावतके अनुसार अगर उपाय करना हो, तो रोगीके घरवालोंसे यह कहकर कि, अब आशा तो नहीं है, मामला असाध्य है, पर हम राम भरोसे उपाय करते हैं--वैद्यको अवपीड़ नस्यका प्रयोग करना चाहिये और सिरमें कव्वेके पञ्जका-सा चिह्न बनाकर उसपर खून समेत ताजा मांस रखना चाहिये। इसीको “काकपद करना” कहते हैं। यह आखिरी उपाय है । इस उपायसे रोगी जीता है या मर गया है, यह भी मालूम हो जाता है और अगर जिन्दगी होती है, तो साँसकी रुकावट भी खुल जाती है। अगर इस उपायसे साँस आने लगे, तो फिर और उपाय करके रोगीको बचाना चाहिये। अगर "काक. पद"से भी कुछ न हो, तो बस मामला खतम समझना चाहिये या ऐसी निराश अवस्थामें, अगर रोगी जीवित हो, तो जहरीले साँपसे कटाना चाहिये; क्योंकि “विषस्य विषमौषधम्" कहावतके अनुसार, विषसे विषके रोगी आराम हो जाते हैं। अगर साँपसे न कटासको तो साँपका जहर रोगीके शरीरकी शिरा या नसमें पेवस्त करो; यानी शरीरमें, किसी स्थानपर चीरकर, खून बहानेवाली नसपर साँपके जहरको लगा दो। वह विष खूनमें मिलकर, सारे शरीरमें फैल जायगा और खाये-पिये हुए स्थावर विषके प्रभावको नष्ट करके, रोगीको बचा देगा । इसीको “प्रतिविष चिकित्सा" कहते हैं । स्थावर विष जंगम विषके विपरीत गुणोंवाला होता है और जंगम विष स्थावरके विपरीत होता है । स्थावर या मूलज विष ऊपरकी ओर दौड़ता है और जंगम नीचेकी तरफ दौड़ता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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