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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-सोमरोग । ३६५ सोमरोगसे मूत्रातिसार । - जब स्त्रीका सोमरोग पुराना हो जाता है, यानी बहुत दिनों तक बना रहता है, तब वह “मूत्रातिसार" हो जाता है । पहले तो सोमरोगकी हालतमें पानी-सा पदार्थ बहा करता है। किन्तु इस दशामें बारम्बार पेशाब होते हैं और पेशाबोंकी मिकदार भी जियादा होती है। स्त्री ज़रा भी पेशाबको रोकना चाहती है, तो रोक नहीं सकती । परिणाम यह होता है कि, स्त्रीका सारा बल नाश हो जाता है और अन्तमें वह यमालयकी राह लेती है । कहा है:-- . सोमरोगे चिरंजाते यदा मूत्रमतिस्रवेत् । मूत्रातिसारं तं प्राहुबलविध्वंसनं परम् ॥ सोमरोगके पुराने होनेपर, जब बहुत पेशाब होने लगता है, तब उसे बलको नाश करनेवाला “मूत्रातिसार" कहते हैं। नोट - याद रखना चाहिये, सोमरोग मूत्र-मार्ग या मूत्रकी नलीमें और प्रदर-रोग गर्भाशयमें होता है और ये दोनों रोग स्त्रियोंको ही होते हैं। सोमरोगके निदान कारण । जिन कारणोंसे “प्रदर रोग" होता है, उन्हीं कारणोंसे "सोमरोग" होता है। अति मैथुन और अति मिहनत प्रभृति कारणोंसे शरीरके रस रक्त प्रभृति पतले पदार्थ और पानी, अपने-अपने स्थान छोड़कर, मूत्रकी थैलीमें आकर जमा होते और वहाँसे चलकर, योनिकी राहसे, हर समय या अनियत समयपर बाहर गिरा करते हैं। सोमरोग-नाशक नुसखे । (१) भिण्डीकी जड़, सूखा पिंडारू, सूखे आमले और विदारीकन्द, ये सब चार-चार तोले, उड़दका चूर्ण दो तोले और मुलेठी दो तोलेलाकर पीस-कूट और छान लो। इस चूर्णकी मात्रा ६ माशेकी है। For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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