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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सा। नेत्रोंका रंग और-का-और हो गया हो तथा नेत्र गड़-से गये हों, त्रिपरीत रूप दीखते हों यानी कुछ-का-कुछ दीखता हो- ऐसे विषार्त्तके नेत्रोंमें विषनाशक अंजन लगाओ। ___ (३) जिसके सिरमें दर्द हो, सिर भारी हो, आलस्य हो, ठोड़ी और जाबड़े जकड़ गये हों, गला रुका हुआ हो, गर्दन ऐंठ गई होमुड़ती न हो-मन्यास्तम्भ हो, तो ऐसे विषातको तेज़ नस्य देकर उसका सिर साफ करो। (४) जो रोगी विषके प्रभावसे बेहोश हो, नेत्र फटे-से हों, गर्दन टूट गई हो, उसे प्रधमन नस्य दो; यानी फॅकनीसे दवा नाकमें फॅ को। इधर यह काम हो, उधर बिना देर किये ललाटदेश और हाथ-पैरोंकी शिरा वेधन करो-फस्द खोलो । अगर उनमेंसे खून न निकले, तो झट नश्तरसे मूर्द्धा या दिमारामें कव्वेके पंजेका चिह्न करके ताजा मांस या खून-मिला चमड़ा उसपर रख दो। यह विषको खींच लेगा। अगर यह न हो सके, तो भोजपत्र आदि बल्कलवाले वृक्षोंका ताजा निर्यास या सार अथवा अन्तरछाल रखो । विषनाशक दवाओंसे लिपे हुए ढोल-डमरू आदि बाजे रोगीके कानोंके पास बजाओ। (५) जब उपरोक्त उपाय करनेसे चैतन्यता और ज्ञान हो जाय, तब वमन-विरेचन द्वारा नीचे-ऊपरसे खूब शोधन करो-परम दुर्जय विषको क़तई निकाल दो। अगर विषका कुछ भी अंश शरीरमें रह जायगा, तो फिर वेग होने लगेंगे तथा विवर्णता, शिथिलता, ज्वर, खाँसी, सिर-दर्द, रक्तविकार, सूजन, क्षय, जुकाम, अंधेरी आना, अरुचि और पीनस प्रभृति उपद्रव होने लगेंगे। अगर फिर उपद्रव हों या जो शेष रह जायँ, उनका इलाज विषन्न दवाओं या उपायोंसे "दोषानुसार" करो; यानी विष के जो उपद्रव हों, उनका यथायोग्य उपचार करो। For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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