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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । अन्यत्र बिठा दो और खूब सेक करो। ईश्वरकी इच्छा होगी तो रोगी बच जायगा। “वैद्यकल्पतरु"। (११) जब देखो कि, मंत्र-तंत्र, दवा-दारू और अगद एवं अन्य उपाय सब निष्फल हो गये; रोगी क्षण-क्षण असाध्य होता जाता है- मृत्युके निकट पहुँचता जाता है; तब, पाँचवें वेगके बाद और सातवेंसे पहले, उसे “प्रतिविष" सेवन कराओ, यानी जब विषका प्रभाव हड्डियोंमें पहुँच जाय, शरीरका बल नष्ट हो जाय, उठा-बैठा और चला-फिरा न जाय, शरीर एकदम ठण्डा हो जाय अथवा एक दमसे गरम हो जाय अथवा जाड़ा लगकर शीतज्वर चढ़ आवे, जीभ बध जाय, शरीर बहुत ही भारी हो जाय और बेहोशी आ जाय-तब "प्रतिविष” सेवन कराओ। प्रतिविषका अर्थ है, विपरीत गुणवाला विष । स्थावर विषका प्रतिविष जंगम विष है और जंगम विषका प्रतिविष स्थावर विष है । क्योंकि एककी प्रकृति कफकी है, तो दूसरेकी पित्तकी। एक विष सर्द है, तो दूसरा गरम । एक बाहर से भीतर जाता है, तो दूसरा भीतरसे बाहर आता है। एक नीचे जाता है, तो दूसरा ऊपर । स्थावर विष कफप्रायः और जंगम विष पित्तप्रायः होते हैं । स्थावर विष आमाशयसे खूनकी ओर जाते हैं और जंगम विष, रुधिरमें मिलकर, आमाशय और फेफड़ोंकी ओर जाते हैं । इसीसे स्थावर विष जंगमका दुश्मन है और जंगम स्थावरका दुश्मन है । स्थावर विषके रोगीको जंगम विष सेवन करानेसे और जंगम विषवालेको स्थावर विष सेवन करानेसे आराम हो जाता है। साँपबिच्छू प्रभृतिके जंगम विषोंपर "वत्सनाभ' आदि स्थावर विष और संखिया, वत्सनाभ आदि स्थावर विषोंपर साँप-बिच्छू आदिके जंगम विष अमृतका काम कर जाते हैं। अन्तमें “विषस्य विषमौषधम्" जहरकी दवा जहर है, यह कहावत सच्ची हो जाती है। मतलब यह, साँपके काटे हुएकी असाध्य अवस्थामें किसी तरहका For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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