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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir OPARDA Homwww wwwwww ESS मेरी राम कहानी TER पने दोष-अदोषों, अपने गुण-अवगुणों, अपनी कम जोरियाँ और खामियों, अपनी अल्पज्ञता और बहुज्ञता एवं अपनी विद्वत्ता और अविद्वत्ता प्रभृतिके सम्बन्धमें 7 मनुष्य जितना खुद जानता और जान सकता है, उतना दूसरा कोई न तो जानता ही है और न जान ही सकता है। मैं जब-जब अपने सम्बन्धमें विचार करता हूँ, अपने गुण-दोषोंकी स्वयं आलोचना करता हूँ, तब-तब इस नतीजेपर पहुँचता हूँ, कि मैं प्रथम श्रेणीका अज्ञानी हूँ। मुझमें कुछ भी योग्यता और विद्वत्ता नहीं। जब मुझे अपनी अयोग्यताका पूर्ण रूपसे निश्चय हो जाता है, तब मुझे अपनी “चिकित्सा-चन्द्रोदय" जैसे उत्तरदायित्व-पूर्ण ग्रन्थ लिखनेकी धृष्टतापर सख्त अफसोस और घर-घरमें उसका प्रचार होते देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। मेरी समझमें नहीं आता, कि मेरे जैसे प्रथम श्रेणीके अयोग्य लेखक और आयुर्वेदके मर्मको न समझनेवालेकी कलमसे लिखी हुई पुस्तकोंका अधिकांश हिन्दी-भाषाभाषी जनता इतना आदर क्यों करती है ? अगरेजी विद्याके धुरन्धर पण्डित-आजकलके बाबू और बड़े-बड़े जज, मुन्सिफ, वकील और प्रोफेसर प्रभृति, जो हिन्दीके नामसे भी चिढ़ते हैं, हिन्दीको गन्दी और खासकर वैद्यक-विद्याको जंगलियोंकी अधूरी विद्या समझते हैं, इस आयुर्वेद-सम्बन्धी ग्रन्थको इतने शौक़से क्यों अपनाते और अगले भागोंके लिये क्यों लालायित रहते हैं ? मैं घण्टों इसी उलझनमें उलझा रहता हूँ, पर यह उलझन सुलझती नहीं; समस्या हल होती नहीं। For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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