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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा-सोका वर्णन । १७१ है । जिसके ये सब छोटे होते हैं, वह साँपिन होती है। जिसमें साँप और साँपिन दोनोंके चिह्न पाये जाते हैं और जिसमें क्रोध नहीं होता, वह नपुंसक या हीजड़ा होता है । नपुंसकोंके विषमें उतनी तेजी नहीं होती; यानी उनका विष नर-मादीन साँपोंकी अपेक्षा मन्दा होता है। साँपोंकी किस्में "सुश्रुत' में साँपोंकी बहुत-सी किस्में लिखी हैं। यद्यपि सभी किस्मोंका जानना जरूरी है, पर उतनी किस्मोंके साँपोंकी पहचान और नाम वगैरः सोसे दिलचस्पी रखनेवालों, उनको पकड़ने-पालनेवालों और तन्त्र-मन्त्रका काम करनेवालोंके सिवा और सब लोगोंको याद नहीं रह सकते, इससे हम सॉंके मुख्य-मुख्य भेद ही लिखते हैं। साँपोंके पाँच भेद । ___ यों तो साँप अस्सी प्रकारके होते हैं, पर मुख्यतया तीन या पाँच प्रकारके होते हैं । वाग्भट्टने भी तीन प्रकारके सर्पो का ही जिक्र किया है । शेषके लिये अनुपयोगी समझकर छोड़ दिया है। उन्होंने दर्बीकर, मण्डली और राजिल-तीन तरहके साँप लिखे हैं । भोगी, मण्डली और राजिल-ये तीन लिखे हैं। इनके सिवाय, एक जातिका साँप और दूसरी जातिकी साँपिनसे पैदा होनेवाले "दोगले" और लिखे हैं । असल में, सर्पो के मुख्य पाँच भेद हैं: (१) भोगी . (२) मएडली (३) राजिल (४) निर्विष (५) दोगले । नोट-भोगी सर्पो को कितने ही वैद्योंने “दीकर" लिखा है । ये फनवाले भी कहलाते हैं। बोलचालको भाषामें इनके पाँच विभाग इस तरह भी कर सकते हैं(१) फनवाले (२)चित्तीदार (३) धारीदार (४) बिना ज़हरवाले (५) दोगले । For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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