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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ चिकित्सा - चन्द्रोदय | योगों में मिलाते हैं । इस तरह जो त्रिष तैयार होता है, उसे ही “गरविष" कहते हैं। दूषी विष के प्रकारका अथवा लेपनका विष-पदार्थ भी गरसंज्ञक हो जाता है । कोई लिखते हैं, बहुतसे तेज विषोंके मिलानेसे जो विष बनता है, उसे गर- विष (कृत्रिम विष ) कहते हैं । ऐसा विष मनुष्यको शीघ्र ही नहीं, वरन् कालान्तर में मारता है । इससे शरीर में ग्लानि, आलस्य, अरुचि, श्वास, मन्दाग्नि, कमजोरी और बदहज़मी-ये विकार होते हैं। गर- विष नाशक नुसखे । असा, नीम और परवल - इन तीनों के पत्तों के काढ़े में, हरड़को पानी में पीसकर मिला दो और इनके साथ घी पका लो। इसको “वृषादि घृत" कहते हैं । इस घीके खानेसे गर- विष निश्चय ही शान्त हो जाता है । परीक्षित है । नोट - हरड़को पानी के साथ सिलपर पीसकर कल्क या लुगदी बना लो । वज़नमें जितनी लुगदी हो, उससे चौगुना घी लो और घीसे चौगुना श्रड़ सादिका काढ़ा तैयार कर लो । फिर सबको मिलाकर मन्दाग्नि से पकाश्रो । जब काढ़ा जल जाय और घी मात्र रह जाय, उतारकर छान लो और साफ बर्तन में रख दो । 1 (२) कोलकी जड़का काढ़ा बनाकर, उसमें राव और घी डाल - कर, तेलसे स्वेदित किये गर - विषवालेको पिलानेसे गर नष्ट हो जाते हैं । (३) मिश्री, शहद, सोनामक्खी की भस्म और सोना - भस्म - इन सबको मिलाकर चटानेसे, अत्यन्त उग्र अनेक प्रकारके विष मिलाने से बना हुआ गर- विष नष्ट हो जाता है । ( ४ ) बच, कालीमिर्च, मैनशिल, देवदारु, करंज, हल्दी, दारुहल्दी, सिरस, और पीपर - इनको एकत्र पीसकर नेत्रों में आँजनेसे गरविष शान्त हो जाता है । ( ५ ) सिरसकी जड़की छाल, सिरसके फूल और सिरसके ही बीज -- इनको गोमूत्र में पीसकर व्यवहार करनेसे विष बाधा दूर हो जाती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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